मेरी राय में इसमें कोई संदेह नहीं है कि जब तक आप अपनी सामाजिक व्यवस्था
नहीं बदलेंगे, तब तक कोई प्रगति नहीं होगी। आप समाज को रक्षा या अपराधा के लिए
प्रेरित कर सकते हैं। लेकिन जाति-व्यवस्था की नींव पर आप कोई निर्माण नहीं कर
सकते: आप राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते, आप नैतिकता का निर्माण नहीं कर सकते।
जाति-व्यवस्था की नींव पर आप कोई भी निर्माण करेंगे, वह चटक जाएगा और कभी भी
पूरा नहीं होगा।
अब केवल एक प्रश्न रहता है, जिस पर विचार करना है। वह एक है कि ‘हिन्दू
सामाजिक व्यवस्था में सुधाार कैसे किया जाए?‘ जातिप्रथा को कैसे समाप्त किया जाए? यह
जातिप्रथा-उन्मूलन
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प्रश्न अत्यंत महत्वपूर्ण है। ऐसा विचार व्यक्त किया गया है कि जाति-व्यवस्था में सुधार
करने के लिए पहला कदम यह होना चाहिए कि उप-जातियों को समाप्त किया जाए।
यह विचार इस उप-धाारणा पर आधाारित है कि जातियों के बीच तौर-तरीकों और स्तर
के अपेक्षाकृत उप-जातियों के तौर-तरीकों तथा स्तर में अधिाक समानता है। मेरे विचार
से यह एक गलत धाारणा है। डकन तथा दक्षिण भारत के ब्राह्मणों की तुलना में उत्तर
तथा मधय भारत के ब्राह्मण सामाजिक रूप से निम्न श्रेणी के हैं। उत्तर तथा मधय प्रांत
के ब्राह्मण केवल रसोइया और पानी पिलाने वाले हैं, जब कि डकन और दक्षिण भारत
के ब्राह्मणों का सामाजिक स्तर बहुत ऊंचा है। दूसरी ओर, उत्तरी भारत के वैश्य और
कायस्थ बौि)क एवं सामाजिक रूप से डकन और दक्षिण भारत के ब्राह्मणों के समकक्ष
होते हैं। इसके अतिरिक्त, आहार के मामले में भी डकन और दक्षिण भारत के ब्राह्मणों और
कश्मीरी और बंगाल के ब्राह्मण में कोई समानता नहीं है। दक्षिण के ब्राह्मण शाकाहारी
होते हैं, जब कि कश्मीर और बंगाल के ब्राह्मण मांसाहारी। जहां तक आहार का संबंधा है,
डकन और दक्षिण भारत के ब्राह्मणों और ब्राह्मणेतर गुजराती, मारवाड़ी, बनियों और जैन
जैसी जातियों में काफ़ी समानता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि एक से दूसरी जाति
में संक्रमण को आसान बनाने के लिए उत्तरी भारत के कायस्थों और दक्षिण भारत की
अन्य ब्राह्मणेतर जातियों को डकन तथा द्रविड़ प्रदेश की ब्राह्मणेर जातियों में मिला देना
दक्षिण भारत के ब्राह्मणों को उत्तर भारत के ब्राह्मणों में मिला देने के अपेक्षाकृत अधिाक
व्यावहारिक होगा। लेकिन यदि यह मान लिया जाए कि उप-जातियों का विलय संभव
है, तो इस बात की क्या गारंटी है कि उप-जातियों के समाप्त होने के परिणामस्वरूप
जातियां निश्चित रूप से समाप्त हो जाएंगी। इस स्थिति में उप-जातियों के समाप्त
होने से जातियों की जड़ें और मजबूत हो जाएंगी और वे शक्तिशाली बन जाएंगी। परिण्
शामस्वरूप वे अधिाक हानिकर सि) होंगी। अतः यह उपाय न तो व्यवहार्य है और न ही
कारगर। यह उपाय निश्चित रूप से गलत सि) होगा। जाति-व्यवस्था समाप्त करने की
एक और कार्य-योजना है कि अंतर्जातीय खान-पान का आयोजन किया जाए। मेरी राय
में यह उपाय भी पर्याप्त नहीं है। ऐसी अनेक जातियां हैं, जो अंतर्जातीय खान-पान की
अनुमति देती हैं। इस विषय में सामान्य अनुभव यह रहा है कि अंतर्जातीय खान-पान की
व्यवस्था जाति-भावना या जाति-बोधा को समाप्त करने में सफ़ल नहीं हो पाई हैं। मुझे पूरा
विश्वास है कि इसका वास्तवकि उपचार अंतर्जातीय विवाह ही है। केवल खून के मिलते
ही रिश्ते की भावना पैदा होगी और जब तक सजातीयता की भावना को सर्वोच्च स्थान
नहीं दिया जाता, जब तक जाति-व्यवस्था द्वारा उत्पन्न की गई पृथकता की भावना, अर्थात्
पराएपन की भावना समाप्त नहीं होगी। हिन्दुओं में अंतर्जातीय विवाह सामाजिक जीवन में
निश्चित रूप से महान शक्ति का एक कारक सि) होगा। गैर-हिन्दुओं में इसकी इतनी
आवश्यकता नहीं है। जहा ं समाज स ंबधा े ं क े तान े-बाने से सुगठित होगा, वहां विवाह
जीवन की एक साधारण घटना होगी। लेकिन जहां समाज छिन्न-भिन्न है, वहां बाधयकारी
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शक्ति के रूप में विवाह की परम आवश्यकता होती है। अतः जाति-व्यवस्था को समाप्त
करने का वास्तविक उपाय अंतर्जातीय विवाह ही है। जाति व्यवस्था समाप्त करने के लिए
जाति-विलय जैसे उपाय को छोड़कर और कोई उपाय कारगर सि) नहीं होगा। आपके
जातपांत तोड़क मंडल ने आक्रमण की यही नीति अपना रखी है। यह सीधाा और सामने
का आक्रमण है। मैं आपके सही निदान और हिन्दुओं से यह कहने का साहस दिखाने
के लिए आपको बधााई देता हूं कि वास्तव में उनमें द्धहिन्दुओंऋ क्या दोष है। सामाजिक
अत्याचार के मुकाबले राजनीतिक अत्याचार कुछ भी नहीं है और वह सुधाारक जो समाज
का विरोधा करता है, उस राजनीतिज्ञ से अधिक साहसी होता है, जो सरकार का विरोधा
करता है। आपका यह कहना सही है कि जाति-व्यवस्था उसी स्थिति में समाप्त होगी।
जब रोटी-बेटी का संबंधा सामान्य व्यवहार में आ जाए। आपने बीमारी की जड़ का पता
लगा लिया है। लेकिन क्या बीमारी के लिए आपका नुस्खा ठीक है, यह प्रश्न अपने आपसे
पूछिए। अधिासंख्य हिन्दू रोटी-बेटी का संबंधा क्यों नहीं करते? आपका उद्देश्य लोकप्रिय
क्यों नहीं है? उसका केवल एक ही उत्तर है और वह है कि रोटी-बेटी का संबंधा उन
आस्थाओं और धार्म-सि)ांतों के प्रतिकूल है, जिन्हें हिन्दू पवि= मानते हैं। जाति ईंटों की
दीवार या कांटेदार तारों की लाइन जैसी कोई भौतिक वस्तु नहीं है, जो हिन्दुओं को मेलमिलाप से रोकती हो और जिसे तोड़ना आवश्यक हो। जाति तो एक धाारणा है और यह
एक मानसिक स्थिति है। अतः जाति-व्यवस्था को नष्ट करने का अर्थ भौतिक रूकावटों
को दूर करना नहीं है। इसका अर्थ विचारात्मक परिवर्तन से है। जाति-व्यवस्था बुरी हो
सकती है। जाति के आधाार पर ऐसा घटिया आचरण किया जा सकता है, जिसे मानव
के प्रति अमानुषिकता कहा जा सकता है। फि़र भी, यह स्वीकार करना हेाग कि हिन्दू
समुदाय द्वारा जातिप्रथा मानने का कारण यह नहीं है कि उनका व्यवहार अमानुषिक और
अन्यायपूर्ण है। वह जातपांत को इसलिए मानते हैं, क्योंकि वह अत्यधिाक धाार्मिक होते हैं।
अतः जातपांत मानने में लोग दोषी नहीं हैं। मेरी राय में उनका धार्म दोषी है, जिसके कारण
जाति-व्यवस्था की धाारणा का जन्म हुआ है। यदि यह बात सही है तो यह स्पष्ट है कि
वह श=ु जिसके साथ आपको संघर्ष करना है, वे लोग नहीं है जो जातपांत मानते हैं,
बल्कि वे शास्= हैं, जिन्होंने जाति-धार्म की शिक्षा दी है। रोटी-बेटी का संबंधा न करने या
समय-समय पर अंतर्जातीय खान-पान और अंतर्जातीय विवाहों का आयोजन न करने के
लिए लोगों की आलोचना या उनका उपहास करना वांछित उद्देश्य को प्राप्त करने का एक
निरर्थक तरीका है। वास्तविक उपचार यह है कि शास्त्रें से लोगों के विश्वास को समाप्त
किया जाए। यदि शास्त्रें ने लोगों के धार्म, विश्वास और विचारों को ढालना जारी रखा तो
आप कैसे सफ़ल होंगे? शास्त्रें की सत्ता का विरोधा किए बिना, लोगों को उनकी पवि=ता
और दंड विधाान में विश्वास करने के लिए अनुमति देना और फि़र उनके अविवेकी और
अमानवीय कार्यों के लिए उन्हें दोष लगाना और उनकी आलोचना करना सामाजिक सुधाार
करने का अनुपयुक्त तरीका है। ऐसा प्रतीत होता है कि महात्मा गांधाी समेत अस्पृश्यता
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को समाप्त करने वाले समाज सुधाारक यह महसूस नहीं करते हैं कि लोगों के कार्य मा=
उन धार्म-विश्वासों के परिणाम हैं, जो शास्त्रें द्वारा उनके मन में पैदा कर दिए गए हैं।
लोग तब तक अपने आचरण में परिवर्तन नहीं करेंगे, जब तक वे शास्त्रें की पवि=ता में
विश्वास करना नहीं छोड़ देते, जिस पर उनका आचरण आधाारित है। इसमें कोई आश्चर्य
की बात नहीं है कि ऐसे प्रयासों का कोई सकारात्मक परिणाम न निकले। आप भी वही
गलती कर रहे हैं, जो अस्पृश्यता को समाप्त करने के उद्देश्य से काम करने वाले समाज
सुधाारक कर रहे हैं। रोटी-बेटी के संबंधा के लिए आंदोलन करना और उनका आयोजन
करना कृत्रिम साधानों से किए जाने वाले, बलात् भोजन कराने के समान है। प्रत्येक पुरुष
और स्=ी को शास्त्रें के बंधान से मुक्त कराइए, शास्त्रें द्वारा प्रतिष्ठापित हानिकर धाारणाओं
से उनके मस्तिष्क का पिंड छुड़ाइए, फि़र देखिए, वह आपके कहे बिना अपने आप अंतर्जातीय
खान-पान तथा अंतर्जातीय विवाह का आयोजन करेगा/करेगी।
वाद विवाद में फ़ंसने से कोई लाभ नहीं है। लोगों से यह कहने में कोई लाभ नहीं है
कि शास्त्रें में वैसा नहीं कहा गया है, जैसा कि वे विश्वास करते हैं, व्याकरण की दृष्टि
से पढ़ते हैं या तार्किक ढंग से उनकी व्याख्या करते हैं। यह कोई बात नहीं है कि लोग
शास्त्रें का ज्ञान किस प्रकार से ग्रहण करते हैं। आपको ऐसा दृष्टिकोण अपनाना चाहिए,
जैसा कि बु) ने किया था। आपको वह मोर्चा लेना होगा जो गुरु नानक ने लिया था।
आपको शास्त्रें की केवल उपेक्षा ही नहीं करनी चाहिए, बल्कि उनकी सत्ता स्वीकार करने
से इन्कार करना होगा, जैसा कि बु) और नानक ने किया था। आपको हिन्दुओं से यह
कहने का साहस रखना चाहिए कि दोष उनके धार्म का है – वह धार्म जिसने आपमें यह
धाारणा पैदा की है कि जाति-व्यवस्था पवि= है। क्या आप ऐसा साहस दिखाएंगे।