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अध्याय – 2 – सामाजिक क्रांति राजनीतिक क्रांति से पहले होनी चाहिए

भारत में समाज सुधाार का मार्ग स्वर्ग के मार्ग के समान है और इस कार्य में अनेक

कठिनाइयां है। भारत में समाज सुधाार कार्य में सहायक मि= कम और आलोचक अधिक

हैं। आलोचकों के दो स्पष्ट वर्ग हैं। एक वर्ग में राजनीतिक सुधाारक हैं और दूसरे में

समाजवादी।

एक समय था, जब यह माना जाता था कि सामाजिक कुशलता के बिना अन्य कार्य

क्षेत्रें में प्रगति असंभव है। कुप्रथाओं से फ़ैली बुराइयों के कारण हिन्दू समाज की कार्यकुशलता समाप्त हो चुकी थी। अब इन बुराइयों को जड़ से उखाड़ फ़ेंकने के लिए अथक

प्रयास करने होंगे। इस तथ्य को समझ कर ही राष्ट्रीय कांग्रेस के जन्म के साथ ही

सामाजिक सम्मेलन की भी स्थापना हुई थी। जहां कांग्रेस का संबंधा देश के राजनीतिक

संगठन में कमजोर तथ्यों को परिभाषित करना था, वहां सामाजिक सम्मेलन हिन्दू समाज

के सामाजिक संगठन में कमजोर बातों को दूर करने में लगा हुआ था। कुछ समय तक

कांग्रेस और सम्मेलन ने एक सामान्य क्रियाकलाप के दो अंगों के रूप में कार्य किया और

उनके वार्षिक अधिावेशन भी एक ही पंडाल में होते थे। किन्तु शीघ्र ही ये दो अंग दो दलों

में बदल गए – एक राजनीतिक सुधाार दल और दूसरा सामाजिक सुधाार दल। इनके बीच

उग्र विवाद उठ खड़े हुए। राजनीतिक सुधाार दल, राष्ट्रीय कांग्रेस का समर्थन करता था

और सामाजिक सुधाार दल सामाजिक सम्मेलन का। इस प्रकार दो संस्थाएं दो विरोधाी कैम्प

बन गए। मुद्दा यह था कि क्या सामाजिक सुधाार राजनीतिक सुधाारों से पहले होने चाहिएं।

एक दशक तक दोनों शक्तियों का संतुलन समान रूप से बना रहा और उनमें किसी भी

पक्ष की विजय के बिना लड़ाई चलती रही। किन्तु यह स्पष्ट था कि सामाजिक सम्मेलन

का भाग्य तेजी से अस्त हो रहा था। जिन सज्जनों ने सामाजिक सम्मेलन के अधिावेशनों

की अधयक्षता की थी, वे इस बात से दुखी थे कि बहुसंख्यक शिक्षित हिन्दू राजनीतिक

उत्थान के पक्षधार हैं और सामाजिक सुधाारों के प्रति उदासीन हैं। कांग्रेस में उपस्थित होने

वाले लोगों की संख्या बहुत बड़ी थी जो लोग उसमें उपस्थित नहीं हुए, उनकी सहानुभूति

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इसके साथ थी तथा उनकी संख्या और भी बड़ी थी। जो लोग सामाजिक सम्मेलन में

उपस्थित हुए, उनकी संख्या बहत कम थी। इस उदासीनता और कार्यकर्ताओं में हुई कमी

के शीघ्र बाद राजनीतिज्ञों की ओर से इसका सक्रिय विरोधा आरंभ हो गया। कांग्रेस ने

शिष्टता के नाते सामाजिक सम्मेलन को अपने पंडाल का प्रयोग करने की जो अनुमति

दे रखी थी, स्वर्गीय श्री तिलक के नेतृत्व में उसे वापस ले लिया गया और श=ुता की

भावना इतनी गहरी हो गई कि जब सामाजिक सम्मेलन ने अपना पंडाल खड़ा करने की

इच्छा की तो इसके विरोधिायों ने पंडाल को जला डालने की धामकी दी। इस प्रकार समय

के साथ-साथ राजनीतिक सुधाार के पक्ष वाले दल की जीत हुई और सामाजिक सम्मेलन

गायब हो गया और लोग उसे भूल गए। इलाहाबाद में हुए कांग्रेस के आठवें अधिावेशन के

अधयक्ष के रूप में श्री डब्ल्यू- सी- बनर्जी ने जो भाषण दिया था, वह सामाजिक सम्मेलन

की मृत्यु पर पढ़े गए शोक संदेश जैसा लगता है। वह कांग्रेस की प्रवृत्ति का इतना द्योतक

है कि मैं उससे यहां एक उ)रण दे रहा हूं। श्री बनर्जी ने कहा था:

मैं ऐसे लोगों की बात सुनने को बिल्कुल तैयार नहीं हूं, जो यह कहते हैं कि हम अपनी

सामाजिक प्रणाली में सुधाार नहीं करेंगे, जब तक हम राजनीतिक सुधाारों के योग्य नहीं हो

सकेंगे। मुझे दोनों के बीच कोई संबंधा नहीं दिखाई देता।————क्या हम द्धराजनीतिक सधार

के लिएऋ इसलिए उपयुक्त नहीं है, क्योंकि हमारी विधावाएं अविवाहित रह जाती हैं और

हमारी लड़कियां अन्य देशों की तुलना में बहुत पहले ही विवाह-सू= में बांधा दी जाती हैं।

क्योंकि पत्नी और पुत्रियां हमारे मित्रें से मिलने जाने के लिए हमारे साथ कारों में नहीं

चलतीं? क्योंकि हम अपनी पुत्रियों को ऑक्सफ़ोर्ड और केम्ब्रिज नहीं भेजते?

मैंने जैसा कि श्री बनर्जी ने प्रस्तुत किया था, राजनीतिक सुधाार का मामला आपके

सामने रखा है। अनेक लोग ऐसे थे, जो यह जानकार प्रसन्न थे कि कांग्रेस की जीत

हुई। किन्तु जो लोग समाज सुधाार के महत्व में विश्वास रखते हैं वे पूछ सकते हैं कि क्या

श्री बनर्जी की दलील अंतिम है? क्या इससे यह सि) होता है कि जीत उन्हीं की हुई,

जो न्याय-संगत थे? क्या निष्कर्ष रूप में इससे यह सि) होता है कि समाज सुधाार का

राजनीतिक सुधाार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता? यदि मैं मामले के दूसरे पहलू पर विचार

करूं तो इससे मामले को समझने में सहायता मिलेगी। मैं अपने तथ्यों के लिए अछूतों के

साथ व्यवहार का उल्लेख करूंगा।

मराठा राज्य में पेशवाओं के शासन में यदि कोई हिन्दू सड़क पर आ रहा होता था तो

किसी अछूत को इसलिए उस सड़क पर चलने की अनुमति नहीं थी कि उसकी परछाई

से वह हिन्दू अपवि= हो जाएगा। अछूत के लिए यह आवश्यक था कि वह अपनी कलाई

या गर्दन में निशानी के तौर पर एक काला धाागा बांधो, जिससे कि हिन्दू गलती से उससे

छूकर अपवि= हो जाने से बच जाए। पेशवाओं की राजधाानी पूना में किसी भी अछूत के

लिए अपनी कमर में झाडू बांधाकर चलना आवश्यक था, जिससे कि उसके चलने से पीछे

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की धाूल साफ़ होती रहे और ऐसा न हो कि कहीं उस रास्ते से चलने वाला कोई हिन्दू

उससे अपवि= हो जाए। पूना में अछूतों के लिए यह आवश्यक था कि जहां कहीं भी वे

जाएं, अपने थूकने के लिए मिट्टी का एक बर्तन अपनी गर्दन में लटका कर चलें, क्योंकि

ऐसा न हो कि कहीं जमीन पर पड़ने वाले उसके थूक से अनजाने में वहां से गुजरने

वाला कोई हिन्दू अपवि= हो जाए। मैं हाल ही के कुछ और तथ्यों का भी यहां उल्लेख

करना चाहता हूं। मधय भारत की बलाई नाम की एक अछूत जाति पर हिन्दुओं द्वारा किए

जाने वाले अत्याचारों का जिक्र करना काफ़ी होगा। चार जनवरी, 1928 के ‘टाइम्स ऑफ़

इंडिया‘ की एक रिपोर्ट आप देखें। ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया‘ के संवाददाता ने समाचार दिया है

कि कनरिया, बिचोली-हाफ़सी, बिचोली-मर्दाना गांवों तथा इंदौर जिले द्धइंदौर रियासत केऋ

के 15 अन्य गांवों की ऊंची जाति के हिन्दुओं ने, अर्थात् कालोटो, राजपूतों और ब्राह्मणों,

जिनमें पटेल और पटवारी भी शामिल हैं, अपने-अपने गांवों के बलाइयों को सूचित किया

है कि यदि वे उनमें रहना चाहते हैं तो उन्हें नियमों का अवश्य पालन करना होगा:

द्धकऋ बलाई, सुनहरी गोटेदार किनारी की पगड़ियां नहीं बांधोंगे।

द्धखऋ वे रंगीन या फ़ैंसी किनारी की धाोतियां नहीं पहनेंगे।

द्धगऋ वे किसी हिन्दू की मृत्यु पर मृतक के संबंधिायों को चाहे वे कितनी भी दूर क्यों

न रहते हों, मरने की सूचना देंगे।

द्धघऋ सभी हिन्दुओं के विवाहों में बलाई लोग बारात के आगे और विवाह के दौरान

बाजा बजाएंगे।

द्धड-ऋ बलाई सि्=यों सोने या चांदी के आभूषण नहीं पहनेंगी। वे फ़ैंसी गाउन या

जाकेट भी नहीं पहनेंगी।

द्धचऋ बलाई सि्=यों को हिन्दू सि्=यों के प्रसव के सभी मामलों में देखभाल करनी

होगी।

द्धछऋ बलाई लोगों केा बिना कोई पारिश्रमिक मांगे सेवा करनी होगी और हिन्दू उन्हें

जो कुछ खुश होकर देंगे, लेना होगा।

द्धजऋ अगर बलाई लोग इन शर्तों का पालन करना स्वीकार नहीं करते हैं तो उन्हें

गांव को छोड़ना होगा।

बलाई लोगों ने उन्हें मानने से इंकार कर दिया और हिन्दुओं ने उनके विरु) कार्रवाई

की। बलाइयों को गांवों के कुओं से पानी नहीं भरने दिया गया। उन्हें अपने पशुओं को

चराने के लिए नहीं ले जाने दिया गया। बलाई लोगों को हिन्दुओं की भूमि से गुजरने

की मनाही कर दी, ताकि यदि किसी बलाई का खेत हिन्दुओं के खेतों से घिरा हो तो

बलाई अपने ही खेत तक न पहुंच सकें। हिन्दुओं ने अपने पशुओं को भी बलाइयों के खेतों

में चरने के लिए छोड़ दिया। बलाइयों ने इन अत्याचारों के विरु) दरबार में याचिकाएं

दायर कीं, किन्तु चूंकि उन्हें समय पर कोई राहत नहीं मिली और अत्याचार जारी रहा

तो सैकड़ों बलाई लोग अपने बाल-बच्चों सहित अपने घरों को जहां वे पीढ़ियों से रहते

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आ रहे थे, छोड़कर समीपवर्ती रियासतों, अर्थात् धाार, देवास, बागली, भोपाल, ग्वालियर

तथा अन्य रियासतों के गांवों में जाकर बसने के लिए मजबूर हो गए। अपने नए घरों में

उनकी क्या स्थिति रही, उस पर फि़लहाल हम विचार नहीं करेंगे। गुजरात में कविठा की

घटना तो पिछले ही वर्ष घटी है। कविठा के हिन्दुओं ने अछूतों को आदेश दिया कि वे

अपने बच्चों को सरकार द्वारा चलाए जा रहे गांव के आम स्कूल में न भेजें। हिन्दुओं की

इच्छाओं के विरु) नागरिक अधिकार का प्रयोग करने का साहस करने के लिए कविठा

के अछूतों को कितने कष्टों का सामना करना पड़ा सभी जानते हैं, इसे विस्तार से बताने

की आवश्यकता नहीं है। एक अन्य घटना गुजरात में अहमदाबाद जिले के जानू गांव में

हुई। नवम्बर 1935 में सम्पन्न परिवारों की कुछ अछूत महिलाओं ने धाातु के बर्तनों में पानी

लाना आरंभ कर दिया। हिन्दुओं ने अछूतों द्वारा धाातु के बर्तनों के प्रयोग को अपने सम्मान

के विरु) समझा और अछूत महिलाओं पर इस गुस्ताखी के लिए हमला किया। एक बहुत

ही नई घटना की सूचना जयपुर रियासत में चकवारा से मिली है। समाचार-पत्रें में छपी

सूचना से पता चलता है कि चकवारा के एक अछूत ने जो तीर्थ-यात्र के बाद घर लौटा

था, अपने धाार्मिक अनुष्ठान को पूरा करने के लिए गांव के अपने अछूत भाइयों को भोज

देने की व्यवसायी की थी। मेजबान की इच्छा थी कि मेहमानों को बहुमूल्य भोजन खिलाया

जाए और उसमें घी से युक्त व्यंजन भी परोसे जाएं। किन्तु जिस समय अछूत लोग भोजन

कर रहे थे तो सैकड़ों की संख्या में हिन्दू लाठियां लेकर वहां दौड़े और भोजन को खराब

कर दिया तथा अछूतों को बुरी तरह पीटा। परोसे गए भोजन को छोड़, मेहमान अपनी

जान बचाने के लिए भाग गए। निःसहाय अछूतों पर ऐसा प्राणघातक आक्रमण क्यों किया

गया? इसका जो कारण बताया गया है, वह यह था कि अछूत मेजबान इतना धाृष्ट था

कि उसने घी का प्रयोग किया और उसके अछूत मेहमान इतने मुर्ख थे कि वे उसे खो

रहे थे। घी निःसंदेह अमीरों के लिए एक विलास की वस्तु है। किन्तु कोई भी यह नहीं

सोचेगा कि घी ऊंचे सामाजिक स्तर का प्रतीक है। चकवारा के हिन्दुओं ने इसका दूसरा

अर्थ लिया और उन अछूतों द्वारा उनके साथ की गई गलती के लिए हिन्दुओं के धाार्मिक

क्रोधा में उनसे बदला लिया, जिन्होंने अपने भोजन में घी परोसकर उनका अपमान किया

था। उन्हें यह जानना चाहिए था कि वे हिन्दुओं के सम्मान की बराबरी नहीं कर सकते।

इसका यह अर्थ है कि किसी अछूत को घी का प्रयोग नहीं करना चाहिए। ऐसा करना

हिन्दुओं के प्रति उद्दंडता है। यह घटना पहली अप्रैल, 1936 या उसके आसपास की है।

इन तथ्यों को बताने के बाद अब मैं सामाजिक सुधाार के बारे में बात करूंगा। ऐसा

करने में मैं जहां तक हो सकता है, श्री बैनजी का अनुसरण करूंगा। मैं राजनीतिक प्रवृत्ति

के हिन्दुओं से पूछता हूं, ‘‘जब आप अपने ही देश के अछूतों जैसे एक बहुत बड़े वर्ग

को सार्वजनिक स्कूल का प्रयोग नहीं करने देते तो क्या आप राजनीतिक सत्ता के योग्य

हैं? जब आप उन्हें सार्वजनिक कुओं का प्रयोग नहीं करने दते तो क्या आप राजनीतिक

सत्ता के योग्य हैं? जब आप उन्हें आम सड़कों का प्रयोग नहीं करने देते तो क्या आप

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राजनीतिक सत्ता के योग्य हैं? जब आप उन्हें अपनी पसंद के आभूषण और वेशभूषा धाारण

नहीं करने देते तो क्या आप राजनीतिक सत्ता के योग्य हैं? जब आप उन्हें उनकी पसंद

का भोजन नहीं करने देते तो क्या आप राजनीतिक सत्ता के योग्य हैं?‘‘ मैं इस प्रकार के

अनेक प्रश्न पूछ सकता हूं, किन्तु ये ही प्रश्न काफ़ी होंगे। मैं व्यग्र हूं यह जानने के लिए

कि श्री बैनर्जी क्या उत्तर देते। मुझे यकीन है कि कोई भी समझदार व्यत्ति इसका ‘हां‘ में

उत्तर देने का साहस नहीं करेगा। प्रत्येक कांग्रेसी को, जो श्री मिल के इस सि)ांत को

मानता है कि एक देश दूसरे देश पर शासन करने योग्य नहीं है, यह बात स्वीकार करनी

चाहिए कि एक वर्ग दूसरे वर्ग पर भी शासन करने के योग्य नहीं है।

तब यह कैसे हुआ कि सामाजिक सुधाार दल लड़ाई हार गया। इसे सही-सही रूप

में समझने के लिए इस बात पर धयान देना जरूरी है कि समाज सुधाारक किस प्रकार

के समाज सुधाार के लिए आंदोलन कर रहे हैं। इस संबंधा में यह आवश्यक है कि हिन्दू

परिवार के सुधाार के अर्थ में समाज सुधाार और हिन्दू समाज के पुनर्गठन तथा पुनर्निर्माण

के अर्थ में समाज सुधाार, इन दोनों में अंतर किया जाए। पहले प्रकार के समाज सुधाार

का संबंध विधावा विवाह, बाल विवाह, आदि से है, जब कि दूसरे प्रकार के समाज सुधाार

का संबंध जातिप्रथा के उन्मूलन से है। सामाजिक सम्मेलन एक ऐसी संस्था थी, जिसका

संबंधा मुख्य रूप से ऊंची जाति के प्रबु) हिन्दुओं से था जो जातिप्रथा के उन्मूलन के

लिए आंदोलन करना आवश्यक नहीं समझते थे, या उनमें इसके लिए आंदोलन करने का

साहस नहीं था। उन्होंने जबरन विधावापन, बाल विवाह जैसी बुराइयों को जो उनमें फ़ैली

हुई थीं और जिन्हें वे खुद महसूस करते थे, दूर करने की भारी आवश्यकता को महसूस

किया। वे हिन्दू समाज में सुधाार करने के लिए खड़े नहीं हुए थे। वह जो लड़ाई लड़ रहे

थे, वह परिवार के सधार के प्रश्न पर ही केंद्रित थी। इसका संबंधा जातिप्रथा को तोड़ने

के अर्थ में समाज सुधाार से नहीं था। समाज सुधाारकों ने इस मुद्दे को कभी नहीं उठाया।

यही कारण है कि सामाजिक सुधाार दल समाप्त हो गया।

मैं जानता हूं कि यह दलील इस तथ्य को नहीं बदल सकती कि राजनीतिक सुधाार

को वास्तव में सामाजिक सुधाार से वरीयता मिली। किन्तु तर्क का अगर अधिाक नहीं तो

इतना मूल्य तो है ही। इससे स्पष्ट होता है कि समाज सुधाारक क्यों सफ़ल नहीं हुए। इससे

हमें यह भी समझने में सहायता मिलती है कि राजनीतिक सुधाार दल ने सामाजिक सुधाार

दल के ऊपर जो विजय प्राप्त की, वह कितनी सीमित थी और यह विचार कि सामाजिक

सुधाार के राजनीतिक सुधाार से पहले होने की आवश्यकता नहीं है, ऐसा विचार केवल

तभी उत्पन्न होता है जब कि समाज सुधाार का अर्थ परिवार का सुधाार हो। यह तथ्य कि

राजनीतिक सुधाार समाज के पुनर्गठन के अर्थ में सामाजिक सुधाार के ऊपर वरीयता प्राप्त

नहीं कर सकता, एक ऐसा शोधा-प्रबंधा है जिस पर मैं समझता हूं मतभेद नहीं हो सकता।

राजनीतिक संविधाानों के निर्माताओं को सामाजिक शक्तियों को धयान में रखना चाहिए।

इस तथ्य को फ़र्डिनेंड लेजले जैसे महान व्यक्ति ने स्वीकार किया है कि कार्ल मार्क्स का

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मि= और सहकर्मी था। 1862 में प्रशिया की एक सभा में लेजले ने कहा था:

‘‘संवैधाानिक प्रश्न सर्वप्रथम अधिाकार के प्रश्न नहीं, बल्कि शक्ति के प्रश्न होते हैं।

किसी देश के वास्तविक संविधाान का अस्तित्व उस देश में विद्यमान शक्ति की वास्तविक

स्थिति में ही होता है। अतः राजनीतिक संविधाानों का मूल्य और स्थायित्व केवल तभी

होता है, जब कि वे शक्ति की उन शर्तों को सही-सही ढंग से प्रकट करते हैं जो किसी

समाज में विद्यमान होती हैं।‘‘

किन्तु प्रशिया जाने की जरूरत नहीं है। घर में ही उसके प्रमाण हैं। उस सांप्रदायिक

अधिानिर्णय का क्या महत्व है, जिसमें विविधा जातियों और समुदायों के परिभाषित अनुपातों

में राजनीतिक सत्ता का आवंटन हो? मेरे विचार से इसका महत्व इस बात में है कि

राजनीतिक संवधिाान को सामाजिक संगठन को धयान में रखना चाहिए। इससे प्रकट

होता है कि ऐसे राजनीतिज्ञ जिन्होंने यह नहीं माना कि भारत की सामाजिक समस्या का

राजनीतिक समस्या पर भी कोई प्रभाव है, वे संविधाान तैयार करने में सामाजिक समस्या को

मनाने के लिए बाधय हुए। कहने का तात्पर्य यह है कि सांप्रदायिक अधिानिर्णय सामाजिक

सुधाार की उपेक्षा से उत्पन्न प्रतिशोधा है। यह सामाजिक सुधाार दल के लिए विजय है जो

यह दिखाता है कि चाहे वे हार गए, किन्तु उनका सामाजिक सुधाार के महत्व पर बल

देना ठीक था। मैं जानता हूं कि बहुत से लोग इस तथ्य को स्वीकार नहीं करेंगे। इस

प्रकार का विचार अभी मौजूद है और इस बात पर विश्वास करना अच्छा लगता है कि

सांप्रदायिक अधिानिर्णय अस्वाभाविक है और यह नौकरशाही तथा अल्पसंख्यकों के बीच

अपवि= गठबंधान का परिणाम है। अगर यह कहा जाए कि सांप्रदायिक अधिानिर्णय एक

अच्छा साक्ष्य नहीं है तो मैं अपने मत के समर्थन में इस पर एक साक्ष्य के रूप में भरोसा

नहीं करना चाहता। आयरलैंड को लीजिए। आयरिश होम रूल का इतिहास क्या बताता

है? सब जानते हैं कि अल्स्टर और दक्षिणी आयरलैंड के प्रतिनिधिायों के बीच बातचीत

के दौरान दक्षिणी आयरलैंड के प्रतिनिधिा श्री रेडमंड ने अल्स्टर को समस्त, आयरलैंड

के लिए समान होम रूल संविधाान के अंतर्गत लाने के लिए अल्स्टर के प्रतिनिधिायों से

कहा था, ‘‘आप जिस राजनीतिक सुरक्षा को पसंद करते हैं, उसकी मांग करें, आपको वह

मिलेगी।‘‘ पता है, अल्स्टर के लोगों ने क्या जबाव दिया? उनका उत्तर था, ‘‘धिाक्कार है,

आपकी सुरक्षा को हम किसी भी शर्त पर अपने ऊपर आपका शासन नहीं चाहते।‘‘ जो

लोग भारत में अल्पसंख्यकों पर दोषारोपण करते हैं, उन्हें इस बात पर विचार करना चाहिए

कि यदि अल्पसंख्यक वह रवैया अपना लेते, जो अल्स्टर ने अपनाया था तो बहुसंख्यकों

की राजनीतिक आकांक्षाओं का क्या होता? आयरिश होम रूल के प्रति अल्स्टर के रवैए

को देखते हुए क्या यह कुछ भी नहीं है कि अल्पसंख्यक उस बहुसंख्यक के शासन में

रहने को सहमत हो गए, जिसने राजनीतिज्ञता की कोई अधिाक भावना नहीं दिखाई और

क्यों उनके लिए कुछ सुरक्षात्मक उपायों की व्यवस्था की? किन्तु यह केवल आकस्मिक

है। मुख्य प्रश्न यह है कि अल्स्टर ने ऐसा रवैया क्यों अपनाया? मैं इसका केवल एक

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उत्तर दे सकता हूं कि अल्स्टर और दक्षिणी आयरलैंड के बीच एक सामाजिक समस्या

थी। कैथोलिकों और प्रोटेस्टेंटों के बीच एक समस्या निश्चय ही जाति की समस्या थी।

आयरलैंड में होम रूल एक प्रकार से रोम का शासन रूल होगा। अल्स्टरवासियों ने इसी

रूप में अपना उत्तर तैयार किया था। किन्तु इस बात को बताने का यही एक अन्य तरीका

है कि कैथोलिकों और प्रोटेस्टेंटों के बीच जाति की सामाजिक समस्या थी, जिसने वहां

राजनीतिक समस्या का हल नहीं होने दिया। इस साक्ष्य को फि़र से चुनौती दिया जाना

निश्चित है। यहां भी साम्राज्यवादी हाथ काम कर रहा था। किन्तु मेरे साधान समाप्त नहीं

हुए हैं। मैं रोम के इतिहास से साक्ष्य दूंगा। यहां कोई भी यह नहीं कह सकता है कि

कोई दुष्ट आत्मा काम कर रही थी। जिस किसी ने भी रोम के इतिहास का अधययन

किया है, उसे पता होगा कि रोम के गणतं=वादी संविधाान में सांप्रदायिक अधिानिर्णय से

बहुत अधिाक मिलते-जुलते तत्व थे। जब रोम में राजशाही का उन्मूलन हुआ तो राजसी

सत्ता या परसत्ता द्धइम्पीरियमऋ कांसुलों और पोंटिफ़ेक्स मेक्सिमस के बीच विभक्त हो गई

थी। कांसुलों में राजा का धर्मनिरपेक्ष प्राधिाकार निहित था, जब कि पोंटिफ़ेक्स मेक्सिमस

ने राजा का धाार्मिक प्राधिाकार ग्रहण किया था। इस गणतं=वादी संविधाान ने दो कांसुलों

का प्रावधाान किया था। एक था पेट्रिशियन और दूसरा था प्लेबियन। उसी संविधाान में

पोंटिफ़ेक्स मेक्सिमस के अधाीन पादरियों की भी व्यवस्था थी, जिनमें से आधो प्लेबियन

और आधो पेट्रिशियन होते थे। इसका क्या कारण है कि रोम के गणतं=वादी संविधाान में

ये प्रावधाान थे जो कि, जैसा कि मैंने बताया था, सांप्रदायिक अधिानिर्णय के प्रावधाानों से

इतने अधिाक मिलते हैं? इसका एक ही उत्तर मिल सकता है कि रोम गणतं= के संविधाान

को पेट्रिशियनों तथा प्लेबियनों के बीच सामाजिक विभाजन को धयान में रखना पड़ा था।

पेट्रिशियन और प्लेबियन, ये दो स्पष्ट जातियां थीं। सार रूप में हम कह सकते हैं कि

राजनीतिक सुधाारकों को जिस दिशा में वे जाना चाहें, जाने दें। इससे उन्हें पता चलेगा

कि संविधाान तैयार करने में वे प्रचलित सामाजिक व्यवस्था से उत्पन्न समस्या की उपेक्षा

नहीं कर सकते।

इस प्रस्ताव के समर्थन में कि सामाजिक और धाार्मिक समस्याओं का राजनीतिक

संविधानों पर प्रभाव पड़ता है, मैंने जिन उदाहरणों को प्रस्तुत किया है, वे अधिाक विस्तृत

प्रतीत होते हैं। मैं समझता हूं कि ऐसा ही है। किन्तु यह नहीं मानना चाहिए एक का दूसरे

पर पड़ने वाला प्रभाव सीमित होता है। दूसरी ओर, यह कहा जा सकता है कि इतिहास

सामान्यतः इस प्रस्ताव को बदल देता है कि राजनीतिक क्रांतियां हमेशा सामाजिक और

धार्मिक क्रांतियों के बाद हुई हैं। लूथर द्वारा आरंभ किया गया धाार्मिक सुधाार यूरोप के

लोगों की राजनीतिक मुक्ति का अग्रदूत था। इंग्लैंड में प्यूरिटनवाद के कारण राजनीतिक

स्वतं=ता की स्थापना हुई। प्यूरिटनवाद ने नए विश्व की स्थापना की।

प्यूरिटनवाद ही ने अमरीकी स्वतं=ता संग्राम को जीता। प्यूरिटनवाद एक धाार्मिक

आंदोलन था। यही बात मुस्लिम साम्राज्य के संबंधा में सत्य है। अरबों के राजनीतिक

जातिप्रथा-उन्मूलन

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सत्ता बनने से पहले वे पैगम्बर मुहम्मद साहब द्वारा आरंभ संपूर्ण धाार्मिक क्रांति से गुजरे

थे। यहां तक कि भारतीय इतिहास भी उसी निष्कर्ष का समर्थन करता है। चन्द्रगुप्त

द्वारा संचालित राजनीतिक क्रांति से पहले भगवान बु) की धाार्मिक और सामाजिक क्रांति

हुई थी। शिवाजी ने नेतृत्व में राजनीतिक क्रांति भी महाराष्ट्र के संतों द्वारा किए गए

धार्मिक और सामाजिक सुधाारों के बाद हुई थी। सिखों की राजनीतिक क्रांति से पहले गुरु

नानक द्वारा की गई धाार्मिक और सामाजिक क्रांति हुई थी। यहां और अधिाक दृष्टांत देना

अनावश्यक है। इन दृष्टांतों से यह बात प्रकट हो जाएगी कि मन और आत्मा की मुक्ति

जनता के राजनीतिक विस्तार के लिए पहली आवश्यकता है।