मैंने उन लोगों के बारे में विचार किया है, जो आपके साथ नहीं हैं और जिनका आपके
विचारों से खुला विरोधा है। अन्य लोग भी हैं जो ऐसे हैं, जिनके साथ आप नहीं हैं, या जो
आपके साथ नहीं हैं। मैं यह संकोच कर रहा था कि क्या उनके दृष्टिकोण पर विचार किया
जाए। लेकिन आगे और विचार करने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि मुझे उनके
दृष्टिकोण पर विचार करना होगा। इसके दो कारण हैं। पहला, जाति संबंधाी समस्या के प्रति
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उनका रुख मा= एक तटस्थता वाला रुख नहीं है, बल्कि सशस्= तटस्थता वाला रुख
है। दूसरा, शायद उनकी संख्या भी पर्याप्त है। इनमें एक वर्ग ऐसा है, जिसे हिन्दुओं की
जाति-व्यवस्था में कोई विचि= या निंदनीय चीज नहीं मिली है। ऐसे हिन्दू, मुस्लिमों, सिखों
तथा ईसाइयों का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं और इस बात से संतुष्ट हो जाते हैं कि उनमें
भी जातियां हैं। ऐसे प्रश्न पर विचार करते समय प्रारंभ में ही यह धयान रखना होगा कि
मानव समाज कहीं भी एक संपूर्ण इकाई नहीं है। समाज सदैव बहु इकाई वाला रहा है।
इस क्रियाशील विश्व में एक सीमा व्यक्ति है, तो दूसरी सीमा समाज। इन दोनों के बीच
छोटी-बड़ी समस्त सहचारी व्यवस्थाएं, परिवार, मि=ता, सहकारी संस्थाएं, व्यापार प्रतिष्ठान,
राजनीतिक दल, चोर और लुटेरों के गिरोह विद्यमान हैं। छोटे वर्ग आमतौर पर एक-दूसरे
से मजबूती से जुडे़ होते हैं और प्रायः जातियों जैसे होते हैं। उनकी संहिता संकीर्ण तथा भाव
प्रवण होती है, जिसे प्रायः समाज-विरोधाी कहा जा सकता है। यह बात यूरोप तथा एशिया
के प्रत्येक समाज पर लागू होती है। यह निर्धाारित करते समय कि क्या संबंधिात समाज
एक आदर्श समाज है, यह प्रश्न पूछा जा सकता है। क्या वह आदर्श समाज इसलिए नहीं
है क्योंकि इसमें वर्ग हैं, लेकिन वर्ग तो सभी समाजों में होते हैं। यह निर्धाारित करते समय
कि आदर्श समाज कौन सा है, ये प्रश्न पूछे जा सकते हैं: ऐसे हितों की संख्या कितनी है
और वे कितने प्रकार के हैं, जो वर्गों से संबंधिात हैं? अन्य समाजों के साथ उसका व्यवहार
कितना पूर्ण एवं स्वतं= है? क्या वर्गों और जातियों को पृथक करने वाली शक्तियों की
संख्या उन शक्तियों की संख्या से अधिाक है, जो उनको जोड़ती हैं? वर्ग-जीवन को क्या
सामाजिक महत्व दिया गया है? क्या उसकी अनन्यता, रीति-रिवाज और सुविधाा या धार्म
का मामला है। इन प्रश्नों को धयान में रखते हुए किसी व्यक्ति को यह निर्णय लेना होगा
कि क्या गैर-हिन्दुओं में वैसी ही जाति-व्यवस्था है जैसी कि हिन्दुओं में है। यदि हम इन
विचारों को एक ओर मुसलमानों, सिखों और ईसाइयों की जातियों, और दूसरी ओर हिन्दुओं
की जातियों पर लागू करें, तो यह पता चलेगा कि गैर-हिन्दुओं की जाति-व्यवस्था हिन्दुओं
की जाति-व्यवस्था से मूलतः भिन्न है। इसके कई कारण हैं। पहला, ऐसा कोई बंधान नहीं
है, जो उन्हें एकता के सू= में बांधाता हो, जब कि गैर-हिन्दुओं में ऐसे अनेक बंधान हैं, जो
उन्हें एकता के सू= में बांधाते हैं। किसी समाज की शक्ति उसके संपर्क स्थलों तथा उसके
विभिन्न वर्गों के बीच अंतरक्रिया की संभावनाओं पर निर्भर है। कार्लाइल ने इन्हें ‘सुव्यवस्थित
तंतु‘, अर्थात लचीले तंतु कहा है, जो विखंडित तत्वों को जोड़ने और उनमें पुनः एकता
स्थापित करने में मदद करते हैं। हिन्दुओं में ऐसी कोई संघटनकारी शक्ति नहीं है, जो
जातिप्रथा द्वारा किए गए विखंडन को समाप्त कर सकें। लेकिन गैर-हिन्दुओं में ऐसे अनेक
सुव्यवस्थित तंतु हैं, जो उन्हें एकता के सू= में बांधाते हैं। इसके अतिरिकत यह भी स्मरण
रखना होगा कि हालांकि गैर-हिन्दुओं में भी वैसी ही जातियां हैं जैसी कि हिन्दुओं में हैं,
लेकिन उनका गैर-हिन्दुओं के लिए सामाजिक महत्व उतना नही ं ह ै ं, जितना कि हिन्द ुआ े ं
क े लिए ह ै। किसी म ुसलमान या सिख स े प ूछिए कि वह का ैन ह ै तो वह यही कहेगा
जातिप्रथा-उन्मूलन
76 बाबासाहेब डॉ- अम्बेडकर संपूर्ण वाङ्मय
कि वह मुसलमान या सिख है। वह अपनी जाति नहीं बताएगा, हालांकि उसकी जाति है।
आप उसके इस उत्तर से संतुष्ट हो जाएंगे। जब वह यह बताता है कि वह मुसलमान है
तो उससे आगे यह नहीं पूछते कि वह शिया है या सुन्नी, शेख है या सैयद, खटीक है
या पिंजारी। जब वह यह कहता है कि मैं सिख हूं तो आप उससे यह नहीं पूछते कि वह
जाट है या रोडा, मजबी है या रामदासी। लेकिन आप इस बात से उस स्थिति में संतुष्ट
नहीं होते, जबकोई अपने को हिन्दू बताता है। आप उसकी जाति अवश्य पूछेंगे। इसका
कारण यह है कि हिन्दू के विषय में जाति का इतना महत्व है कि उसके जाने बिना आप
यह निश्चित नहीं कर सकते कि वह किस तरह का व्यक्ति है। गैर-हिन्दुओं में जाति का
उतना महत्व नहीं है, जितना कि हिन्दुओं में है। यह बात उस स्थिति में स्पष्ट हो जाती है,
जब आप जाति-व्यवस्था भंग करने के परिणामों पर विचार करते हैं। सिखों और मुसलमानों
में भी जातियां हो सकती हैं, लेकिन वे उस सिख और मुसलमान का जाति-बहिष्कार नहीं
करेंगे, जो अपनी जाति तोड़ता है। वास्तव में, सिख और मुसलमान जाति-बहिष्कार के
विचार से परिचित नहीं हैं। लेकिन हिन्दुओं के विषय में यह बात एकदम भिन्न है। हिन्दू
को यह निश्चित रूप से पता होता है कि यदि वह जाति का बंधान तोड़ेगा तो उसे जाति
से निकाल दिया जाएगा। इससे यह प्रकट होता है कि हिन्दुओं और गैर-हिन्दुओं के लिए
जाति के सामाजिक महत्व में कितना अंतर है। यह उनके बीच अंतर का दूसरा संकेत है।
तीसरा संकेत भी है, जो और अधिाक महत्वपूर्ण है। गैर-हिन्दुओं में जाति की कोई धाार्मिक
पवि=ता नहीं होती, लेकिन हिन्दुओं में तो निश्चित रूप से होती है। गैर-हिन्दुओं में जाति
मा= एक व्यवहार है, न कि एक पवि= प्रथा। उन्होंने जाति की उत्पत्ति नहीं की। उनके
मामले में तो जाति का मा= अस्तित्व बना हुआ है। वे जाति को धाार्मिक सि)ांत नहीं मानते।
धार्म हिन्दुओं को जातियों के पृथक्करण और अलगाव को एक सद्गुण मानने के लिए बाध्य
करता है। लेकिन धार्म गैर-हिन्दुओं को जाति के प्रति ऐसा रुख अपनाने के लिए बाधय
नहीं करता है। यदि हिन्दू लोग जाति को समाप्त करना चाहें तो धार्म आड़े आएगा। लेकिन
गैर-हिन्दुओं के विषय में यह बात लागू नहीं होती। अतः गैर-हिन्दुओं में जाति के मा=
अस्तित्व से संतुष्ट होना तब तक एक खतरनाक भ्रम साबित होगा, जब तक यह जानकारी
प्राप्त न कर ली जाए कि उनके जीवन में जाति का क्या महत्व है और क्या कोई अन्य
ऐसे ‘सुव्यवस्थित तंतु‘ हैं, जो सामाजिक-भावना को उनकी जाति-भावना के ऊपर ले आते
हों। हिन्दुओं का यह भ्रम जितना शीघ्र दूर हो, उतना ही अच्छा है।
हिन्दुओं का एक अन्य वर्ग इस बात से इन्कार करता है कि हिन्दुओं के लिए जातिप्रथा
से कोई समस्या उत्पन्न होती है। ऐसे हिन्दू इस दृष्टिकोण में संतोष व्यक्त करते हैं कि
हिन्दू जाति जीवित रही है और वे इसे जीवित रहने का उपयुक्तता का प्रमाण मानते हैं।
प्रो- एस- राधााकृष्णन ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दू व्यू ऑफ़ लाइफ़‘ में इस दृष्टिकोण की अच्छी
व्याख्या की है। हिन्दू धार्म का संदर्भ देते हुए वे कहते हैं‘, ‘‘सभ्यता कोई अल्पकालिक
वस्तु नहीं रही है। इसका इतिहास चार हजार वर्ष से भी पुराना है, फि़र भी वह एक ऐसी
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सभ्यता बन गई है जिसकी अविछिन्न धाारा आज तक प्रवाहित है, यद्यपि कभी-कभी इसकी
गति मंद और स्थिर भी रही है। इसने चार या पांच सहस्त्रब्दियों से भी अधिाक समय से
आधयात्मिक विचारधाारा एवं अनुभवों से प्रभावित होकर भी इसका मूलतत्व अक्षुण्ण रहा है।
यद्यपि इतिहास के आदिकाल से भिन्न-भिन्न जातियों एवं संस्कृति के लोग भारत में आते
रहे हैं, फि़र भी हिन्दू धार्म ने अपनी सर्वेच्चता अक्षुण्ण रखी है, यहां तक कि राजनीतिक
शक्ति द्वारा पोषित धार्म-परिवर्तनकारी जातियां भी अधिासंख्य हिन्दुओं को अपने विचार मनवा
लेने के लिए बाधय नहीं कर पाई हैं। हिन्दू संस्कृति में कुछ ऐसी जीवन शक्ति है जो अन्य
शक्तिशाली धााराओं में नहीं मिल सकती। यह देखने के लिए हिन्दू धार्म के वृक्ष को काटना
आवश्यक नहीं है कि क्या उसमें आज भी रस निकल रहा है।’’ इस विषय में तो राधााकृष्णन
का नाम ही काफ़ी है कि वे जो कुछ कहते हैं उसमें गंभीरता होती है, और पाठकों को
प्रभावित करते हैं। पर मुझे अपना विचार प्रकट करने में संकोच नहीं करना चाहिए, क्योंकि
मुझे इस बात की आशंका है कि कहीं उनका कथन इस गलत तर्क का आधाार न बन
जाए कि अस्तित्व जीवित रहने की उपयुक्तता का प्रमाण है। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि
सवाल यह नहीं है कि कोई समुदाय जीवित रहता है या समाप्त हो जाता है, बल्कि यह है
कि वह कैसे सम्मान के साथ जीवित रहता है। जीवित रहने के विभिन्न प्रकार हैं। लेकिन
वे सबके सब सम्मानजनक नहीं हैं। किसी व्यक्ति और समाज के लिए मा= जीवनयापन
करने और सम्मानपूर्वक जीवनयापन करने में पर्याप्त अंतर है। यु) में लड़ना और गौरवपूर्ण
जीवन व्यतीत करना, जीवित रहने का एक प्रकार है। पराजित होना, आत्म-समर्पण करना
और एक बंदी के रूप में जीवन व्यतीत करना भी अस्तित्व का एक प्रकार है। किसी हिन्दू
के लिए इस बात से संतुष्ट होना व्यर्थ है कि वह और अन्य जीवित रहे हैं। मुझे यह सोचना
होगा कि उसके जीवन की गुणवत्ता क्या है। यदि वह ऐसा सोचेगा तो मुझे विश्वास है, वह
मा= अस्तित्व का दंभ छोड़ देगा। हिन्दु के जीवन में तो सतत पराजय ही रही है। उसे जो
यह प्रतीत होता है कि उसका जीवन तेा सतत प्रवाहमान रहा है, वह सतत प्रवाहमान नहीं
रहा है, बल्कि वस्तुतः वह ऐसा जीवन रहा है, जिसका सतत ह्रास होता रहा है।