चातुर्वर्ण्य नया नहीं है। यह उतना ही प्राचीन है, जितने कि वेद। इसीलिए आर्यसामाजियों
ने हमसे अनुरोधा किया है कि उनके दावों पर विचार किया जाए। यदि चातुवर्ण्य पर
सामाजिक संगठन के रूप में भूतकाल से विचार किया जाए तो पता चलेगा कि इसकी
आजमाइश की गई है और यह असफ़ल रहा है। कितनी बार ब्राह्मणों ने क्षत्रियों का बीज
मिटाया है? कितनी बार क्षतियों ने ब्राह्मणों का नाश किया है? ‘महाभारत‘ और ‘पुराण‘,
‘ब्राह्मणों‘ और क्षत्रियों के बीच हुए संघर्षों से भरे पड़े हैं। यहां तक कि वे ऐसे तुच्छ मामलों
में झगड़ बैठे थे कि पहले प्रणाम कौन करेगा? जब ब्राह्मण और क्षत्रिय, दोनों एक ही
गली में मिलें, पहले रास्ता कौन देगा, ब्राह्मण या क्षत्रिय। केवल ब्राह्मण क्षत्रिय या क्षत्रिय
ब्राह्मण की आंखों का कांटा नहीं था, बल्कि ऐसा प्रतीत होता है कि क्ष=ीय अत्याचारी
बन गए थे और जनता चूंकि वह चातुर्वर्ण्य व्यवस्था के अधाीन निहत्थी थी, अतः उनके
अत्याचार से छुटकारा पाने के लिए ईश्वर से प्रार्थना कर रही थी। ‘भागवत‘ में यह स्पष्ट
रूप से कहा गया है कि कृष्ण के अवतार लेने का केवल एक ही पवि= उद्देश्य था और
वह था क्षत्रियों का विधवसं करना। जब विभिन्न वर्णों के बीच प्रतिद्वंद्विता और श=ुता के
इतने सारे उदाहरण मौजूद हैं, तब मैं यह नहीं समझता कि कोई व्यक्ति चातुर्वर्ण्य व्यवस्था
को ऐसे प्राप्य आदर्श या प्रतिमान के रूप कैसे मान सकता है, जिसके आधाार पर हिन्दू
समाज की पुनः रचना की जाए।