यह मान भी लिया जाए कि चातुर्वर्ण्य व्यावहारिक है, फि़र भी मैं यह निश्चयपूर्वक
कहूंगा कि यह एक बहुत की दोषपूर्ण व्यवस्था है कि ब्राह्मणों द्वारा विद्या का संवर्धान
किया जाना चाहिए, क्षत्रिय को अस्=-शस्= धाारण करना चाहिए, वैश्व को व्यापार करना
चाहिए और शूद्र को सेवा करनी चाहिए, हालांकि यह एक श्रम विभाजन ही था। क्या इस
सि)ांत का उद्देश्य यह था कि शूद्र को धान-संपत्ति आदि अर्जित करने की आवश्यकता
नहीं है, या यह था कि उसे धान संपत्ति आदि अर्जित करनी ही नहीं चाहिए। यह बहुत
ही दिलचस्प प्रश्न है। चातुर्वर्ण्य सि)ांत के समर्थक इसका पहला अर्थ यह निकालते
हैं कि शूद्र को धन-संपत्ति आदि अर्जित करने का कष्ट क्यों उठाना चाहिए, जब कि
तीनों वर्ग उसकी सहायता के लिए मौजूद हैं। शूद्र को शिक्षा प्राप्त करने की परवाह क्यों
करनी चाहिए, जब कि एक ब्राह्मण मौजूद है। यदि शूद्र को लिखने-पढ़ने की जरूरत
होगी तो वह ब्राह्मण के पास जा सकता है। शूद्र को शस्= धाारण करने की चिंता क्यों
करनी चाहिए, जब कि उसकी रक्षा के लिए क्षत्रिय मौजूद है। इस अर्थ में समझे गए
चातुर्वर्ण्य-सि)ांत के अनुसार यह कहा जा सकता है कि शूद्र एक आश्रित व्यक्ति है
और तीनों वर्ण उसके संरक्षक। इस व्याख्या के अनुसार यह एक साधाारण, समुन्नतकारी
और आकर्षक सि)ांत है। चातुर्वर्ण्य की संकल्पना पर जोर देने वाले दृष्टिकोण को सही
मान लेने पर मुझे यह वर्ण-व्यवस्था न तो स्पष्ट दिखाई देती है और न ही सरल। उस
स्थिति में क्या होगा, जब ब्राह्मण, वैश्य और क्षत्रिय विद्या प्राप्त करने, व्यापार करने तथा
वीर सैनिक बनने के अपने-अपने कर्तव्यों को छोड़ दें? इसके विपरीत, मान लीजिए कि
वे अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं, किन्तु शूद्र के प्रति या एक-दूसरे के प्रति अपने
कर्तव्यों का उल्लंघन करते हैं, तब शूद्र का क्या होगा जब तीनों वर्ण उसकी सहायता न
करें, या तीनों मिलकर उनको दबा कर रखें। उस स्थिति में शूद्र या वैश्य तथा क्षत्रिय
के हितों की रक्षा कौन करेगा, जब उसकी अज्ञानता का लाभ उठाने वाला ब्राह्मण हो?
शूद्र तथा ऐसे मामले में ब्राह्मण और वैश्य की स्वतं=ता की रक्षा करने वाला कौन होगा,
जब लुटेरा क्षत्रिय हो? एक वर्ण का दूसरे पर निर्भर रहना अनिवार्य है। कभी-कभी एक
वर्ण को दूसरे वर्ण पर निर्भर रहने दिया जाता है। लेकिन परमावश्यकताओं की स्थिति में
एक व्यक्ति को दूसरे पर निर्भर क्यों बनाया जाए? शिक्षा प्रत्येक व्यक्ति को प्राप्त करनी
चाहिए। रक्षा के साधन सभी लोगों के पास होने चाहिएं। प्रत्येक व्यक्ति के आत्म-परीक्षण
के लिए ये परम आवश्यकताएं हैं। किसी अशिक्षित और निरस्= व्यक्ति को इस बात से
क्या सहायता मिल सकती है कि उसका पड़ोसी शिक्षित और सशस्= है? अतः यह संपूर्ण
सि)ांत बेतुका हैं। ये ऐसे प्रश्न हैं, जिनसे चातुर्वर्ण्य के समर्थक चिंतित प्रतीत नहीं होते।
लेकिन ये अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न है। यदि चातुर्वर्ण्य के समर्थकों की इस संकल्पना को मान
लिया जाए कि विभिन्न वर्णों के बीच आश्रित और संरक्षक का जो संबंधा है, चातुर्वर्ण्य की
वही वास्तविक संकल्पना है तो यह स्वीकार करना होगा कि इसमें संरक्षक के दुष्कर्मों से
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‘आश्रित‘ के हितों की रक्षा के लिए कोई व्यवस्था नहीं की गई है। संरक्षक और आश्रित
का संबंधा भले ही ऐसी वास्तविक संकल्पना हो, जिस पर चातुर्वर्ण्य की व्यवस्था आधाारित
थी, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि व्यवहार में यह संबंधा वस्तुतः मालिक और नौकर
का था। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के आपसी संबंधा भी संतोषजनक नहीं थे, फि़र भी वे
मिलकर कार्य करने में सफ़ल हुए। ब्राह्मण ने क्षत्रिय की खुशामद की और दोनों ने वैश्व
को जीवित रहने दिया, ताकि वे उसके सहारे जीवित रह सकें। लेकिन तीनों शूद्र को
पद-दलित करने के लिए सहमत हो गए। उसे धान-संपत्ति अर्जित करने की अनुमति नहीं
दी गई, क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि वह तीनों वर्णों पर निर्भर ही न रहे। उसे विद्या प्राप्त
करने से रोका गया कि कहीं ऐसा न हो कि वह अपने हितों के प्रति सजग हो जाए।
उसके लिए शस्= धाारण करना निषि) था कि कहीं ऐसा न हो कि वह उनकी सत्ता के
विरु) विद्रोह करने के लिए साधान प्राप्त कर ले। तीनों वर्ण शूद्रों के प्रति ऐसा ही व्यवहार
करते थे, इसका प्रमाण मनु के कानून में मिलता है। सामाजिक अधिाकारों के संबंधा में मनु
के कानून से ज्यादा बदनाम और कोई विधिा संहिता नहीं है। सामाजिक अन्याय के संबंधा
में कहीं से भी लिया गया कोई भी उदाहरण मनु कानून के समक्ष फ़ीका पड़ जाता है।
अधिाकांश जनता ने इन सामाजिक बुराइयों को क्यों सहन किया? विश्व के अन्य देशों
में सामाजिक क्रांतियां होती रही हैं। भारत में सामाजिक क्रांतियां क्यों नहीं हुई, यह एक
ऐसा प्रश्न है जो मुझे सदैव कष्ट देता रहा है। मैं इसका केवल एक ही उत्तर दे सकता
हूं और वह यह है कि चातुर्वर्ण्य की इस अधाम व्यवस्था के कारण हिन्दुओं के निम्न वर्ग
सीधाी कार्रवाई करने में पूर्णतः असक्त बन गए हैं। वे हथियार धाारण नहीं कर सकते, और
हथियारों के बिना वे विद्रोह नहीं कर सकते थे। वे सभी हलवाहे थे या हलवाहे बना दिए
गए थे और उन्हें हलों को तलवारों में बदलने की कभी भी अनुमति नहीं दी गई। उनके
पास संगीनें नहीं थीं इसलिए कोई भी व्यक्ति उन पर प्रभुत्व जमा लेता। चातुर्वर्ण्य के
कारण वे शिक्षा प्राप्त नहीं कर सके। वे अपनी मुक्ति का मार्ग नहीं सोच सके या ज्ञात
कर सके। उन्हें सदैव दबाकर रखा गया। उन्हें अपने छुटकारे का न तो रास्ता ही मालूम
था और न ही उनके पास साधान थे। उन्होंने अनंत दासता से समझौता कर लिया और
ऐसी नियति पर संतोष कर लिया, जिससे उन्हें कभी भी छुटकारा नहीं मिल सकता था।
यह ठीक है कि यूरोप में भी शक्तिशाली व्यक्ति कमजोर व्यक्ति का शोषण करने में पीछे
नहीं रहा। लेकिन वहां इतने शर्मनाक ढंग से कमजोर व्यक्ति का शोषण नहीं किया गया,
जितना कि भारत में हिन्दुओं ने किया था। यूरोप में शक्तिशाली और कमजोर के बीच
भारत की अपेक्षा अधिाक हिंसात्मक रूप में संग्राम चलता रहा। फि़र भी, यूरोप में कमजोर
व्यक्ति को सेना में अपने शारीरिक शस्=, दुख-दर्द में राजनीतिक शस्= और शिक्षा में
नैतिक शस्= का प्रयोग करने की स्वतं=ता प्राप्त थी। यूरोप में शक्तिशाली व्यक्ति ने
स्वतं=ता के उक्त तीन हथियारों को कमजोर व्यक्ति से कभी नहीं छीना। लेकिन भारत
में चातुर्वर्ण्य के अनुसार जन-समुदाय को उक्त तीनों शस्= धाारण करने से वंचित किया
जातिप्रथा-उन्मूलन
74 बाबासाहेब डॉ- अम्बेडकर संपूर्ण वाङ्मय
गया था। चातुर्वर्ण्य से बढ़कर सामाजिक संगठन की और कोई अपमानजनक प)ति
नहीं हो सकती। यह वह व्यवस्था है, जिसमें लोगों की उपयोगी क्रिया समाप्त, उप तथा
अशक्त हो जाती है। यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है। इतिहास में इसका पर्याप्त प्रमाण
मिलता है। भारतीय इतिहास में केवल एक काल ऐसा है, जिसे स्वतं=ता, महानता और
गौरवपूर्ण युग कहा जाता है। वह युग है, मौर्य साम्राज्य। सभी युगों में देश में पराभव और
अंधकार छाया रहा है। लेकिन मौर्यकाल में चातुर्वर्ण्य को जड़-मूल से समाप्त कर दिया
गया था। मौर्य-युग में शूद्र, जिनकी संख्या काफ़ी थी, अपने असली रूप में आए और
देश के शासक बन गए। भारतीय इतिहास में पराभव और अंधाकार का युग वह था, जब
घृणित चातुर्वर्ण्य देश के अधिाकांश भाग में अभिशाप बनकर फ़ैल गया।