लेकिन सुधाारकों का एक वर्ग ऐसा है, जिसका आदर्श कुछ और ही है। ये स्वयं को
आर्यसमाजी कहते हैं। सामाजिक संगठन का इनका आदर्श चातुर्वर्ण्य, अर्थात् पूरे समाज
का चार वर्गों में विभाजन है, न कि चार हजार जातियों में, जैसा कि भारत में है। अपने
इस सि)ांत को अधिाक आकर्षक बनाने के लिए और विरोधिायों को हतप्रभ करने के लिए
चातुर्वर्ण्य के ये प्रचारक बहुत सोच-समझकर बताते हैं कि उनका चातुर्वर्ण्य जन्म के आधार
पर नहीं, बल्कि गुण के आधाार पर है। यहां पर पहले ही मैं बता देना चाहता हूं कि भले
ही यह चातुर्वर्ण्य गुण के आधाार पर हो, किन्तु यह आदर्श मेरे विचारों से मेल नहीं खाता।
पहली बात तो यह है कि अगर आर्यसमाजियों के चातुर्वर्ण्य के अंतर्गत प्रत्येक व्यक्ति को
उसके अपने गुण के अनुसार हिन्दू समाज में स्थान मिलता हैं, तो मेरी समझ में यह नहीं
आता कि आर्यसमाजी लोग सभी लोगों को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र नाम से पुकारते ही
क्यों हैं। यदि किसी विद्वान को ब्राह्मण न भी कहा जाए, तो भी उसे आदर प्राप्त होगा। यदि
कोई सिपाही हो, तो क्षत्रिय कहे बिना भी उसका सम्मान होगा। आर्यसमाजी लोगों का धयान
अभी तक इस बात पर नहीं जा सका है कि अगर यूरोपीय समाज अपने सिपाहियों और
सेवकों को कोई स्थायी नाम दिए बिना उनका सम्मान कर सकता है तो हिन्दू समाज को
ऐसा करने में क्या कठिनाई है। इन नामों को जारी रखने में एक और भी आपत्ति है। सभी
सुधाारों के मूल में यह तथ्य होता है कि मनुष्यों और वस्तुओं के प्रति लोगों की धारणाओं,
भावनाओं और मानसिक प्रवृत्ति में परिवर्तन हो जाए। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वे
नाम हैं, जिनकी हर हिन्दू के मस्तिष्क में एक निश्चित और रूढ़ धाारणा बनी हुई है।
वह धाारणा यह है कि ये सभी जातियां जन्म के आधाार पर एक सोपानिक क्रम में हैं।
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जब तक ये नाम बने रहेंगे, तब तक हिन्दू जन्म के आधाार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और
शुद्र को ऊंची से लेकर निम्नतम जाति के सोपानिक क्रम में मानते रहेंगे और तदनुसार
व्यवहार करेंगे। हिन्दुओं को यह सब कुछ भूल जाना होगा। लेकिन जब तक ये पुराने
नाम बने रहेंगे, तब तक वह इन्हें कैसे भुला सकेंगे – ये तो उनके दिमाग में उनकी पुरानी
धाारणाओं को पुनः जागृत करते रहेंगे। अगर लोगों के मन में नई धाारणाओं को स्थापित
करना है तो उन्हें नया नाम देना भी जरूरी है। पुराने नाम को बनाए रखने का अर्थ किसी
भी सुधार को निरर्थक बना देना होगा। गुण के आधाार पर इस चातुर्वर्ण्य को ब्राह्मण, क्षत्रिय,
वैश्य और शुद्र के अनर्थकारी नामों से रखना – जिनसे जन्म के आधाार पर सामाजिक
विभाजन का संकेत मिलता है, समाज के लिए एक फ़ंदे की तरह है।