हिन्दुओं की नीति और आचार पर जातिप्रथा का प्रभाव अत्यधिाक शोचनीय है। जातिप्रथा
ने जन-चेतना को नष्ट कर दिया है। उसने सार्वजनिक धार्मार्थ की भावना को भी नष्ट कर
दिया है। जातिप्रथा के कारण किसी भी विषय पर सार्वजनिक सहमति का होना असंभव
हो गया है। हिन्दुओं के लिए उनकी जाति ही जनता है। उनका उत्तरदायित्व अपनी जाति
तक सीमित है। उनकी निष्ठा अपनी जाति तक ही सीमित है। गुणों का आधार भी जाति
ही है और नैतिकता का आधाार भी जाति ही है। सही व्यक्ति के प्रति द्धअगर वह उनकी
अपनी जाति का नहीं हैऋ उनकी सहानुभूति नहीं होती। गुणों की कोई सराहना नहीं है,
जरूरतमंद के लिए सहायता नहीं है। दुखियों की पुकार का कोई जवाब नहीं है।
अगर सहायता दें तो वह केवल जाति मा= तक सीमित है। सहानुभूति है, लेकिन अन्य
जातिप्रथा-उन्मूलन
66 बाबासाहेब डॉ- अम्बेडकर संपूर्ण वाङ्मय
जातियों के लोगों के लिए नहीं। क्या हिन्दू किसी भी महान और अच्छे व्यक्ति के नेतृत्व
को स्वीकार कर सकते हैं और उसका अनुसरण कर सकते हैं? यदि कोई महात्मा हो
तो उसकी बात अलग है, लेकिन सामान्य उत्तर यही है कि वह किसी नेता का अनुसरण
तभी करेगा, जब वह उसकी जाति को हो। ब्राह्मण, ब्राह्मण नेता को ही मानेगा, कायस्थ,
कायस्थ नेता का ही अनुसरण करेगा, आदि आदि। हिन्दुओं में इस बात की क्षमता ही
नहीं है कि वे अपनी जाति से भिन्न अन्य जाति के व्यक्ति के गुणों का सही मूल्यांकन
कर सकें। गुणों की सराहना तभी होती है, जब वह व्यक्ति अपनी जाति का हो। उनकी
पूर्ण नैतिकता उतनी ही निम्न कोटि की है, जितनी जंगली जातियों की होती है। आदमी
कैसा भी हो, सही या गलत, अच्छा या बुरा, बस अपनी जाति का होना चाहिए। न उन्हें
गुणों की प्रशंसा से मतलब है, न बुराई के विरोधा से। उनके लिए मुद्दा सिफ़र् इतना है कि
अपनी जाति का पक्ष लें या नहीं। क्यों हिन्दुओं ने अपनी जाति के हितों-स्वार्थों की रक्षा
करने में अपने देश के प्रति विश्वासघात नहीं किया है?