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अध्याय – 11 – हिंदू धर्म की विभिन्न जातियों के बीच भाईचारा क्यों नहीं है ?

हिन्दू समुदाय जिन कारणों से शुि) करने में असमर्थ है, उन्हीं कारणों से उनका

संगठन भी असंभव है। संगठन का मूल आधाार यह है कि हिन्दुओं के मन से उस कायरता

और बुजदिली को हटा दिया जाए, जिसके कारण वह मुसलमानों और सिखों से अलग हो

जाते हैं तथा अपनी रक्षा के लिए वीरता के स्थान पर चालाकी और धाोखेबाजी के घटिया

तरीके अपनाते हैं। एक स्वाभाविक प्रश्न यह है कि सिख या मुसलमान को वह शक्ति कहां

से प्राप्त होती है, जिससे वह बहादुर और निडर बन जाता है। मेरा विश्वास है कि यह

इसलिए नहीं है कि उनके शरीर में अपेक्षाकृत अधिाक शक्ति होती है, या उनकी खुराक

अधिाक अच्छी है, या वे अधिाक व्यायाम करते हैं। यह शक्ति उनके मन में उत्पन्न इस

भावना के कारण है कि अगर किसी सिख पर खतरा होगा तो सारे सिख उसके बचाव

के लिए दौड़े आएंगे और यदि मुसलमान पर हमला हुआ, सारे मुसलमान उसकी मदद

को आएंगे। हिन्दुओं के पास ऐसी शक्ति नहीं है। उसके मन में यह विश्वास नहीं है कि

शेष हिन्दू उसके बचाव के लिए आएंगे। अकेले होने और भाग्य से अकेले रहने के इस

अहसास के कारण वह शक्तिहीन रहता है। उसके मन में बुजदिली और कायरता घर कर

जाती है और लड़ाई होने पर या तो वह आत्म-समर्पण कर देता है, या भाग जाता है।

दूसरी ओर सिख या मुसलमान निडर होकर लड़ता रहता, क्योंकि उसे पता है कि अकेला

होने के बावजूद वह अकेला नहीं रहेगा। उसके मन में इस विश्वास का होना उसे लड़ते

रहने में सहायक होता है और दूसरे में इस विश्वास का अभाव पराजय स्वीकार करने की

स्थिति पैदा कर देता है। यदि इस विषय का और आगे अधययन किया जाए और यह

पता लगाया जाए कि सिखों और मुसलमानों में इस आत्म-विश्वास का क्या कारण है

और हिन्दुओं में मदद और बचाव के विषय में इतनी निराशा क्यों भरी हुई है, तो आपको

जातिप्रथा-उन्मूलन

64 बाबासाहेब डॉ- अम्बेडकर संपूर्ण वाङ्मय

ज्ञात होगा कि इसका कारण उनके अपने रहन-सहन के तौर-तरीकों में अंतर है। एक

ओर सिखों और मुसलमानों के आपसी रहन-सहन का तरीका, उनमें भाईचारे की भावना

पैदा करता है। दूसरी ओर हिन्दुओं के आपसी रहन-सहन के तौर-तरीके इस भावना को

पैदा नहीं होने देते। सिखों और मुसलमानों में एकता का वह सामाजिक तत्व है, जो उन्हें

भाई-भाई बनता है। हिन्दुओं में एकता का ऐसा कोई तत्व नहीं है और कोई भी हिन्दू

दूसरे हिन्दू को अपना भाई नहीं मानता। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सिख लोग ऐसा क्यों

कहते और सोचते हैं कि एक सिख या एक खालसा सवा लाख आदमियों के बराबर होता

है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि एक मुसलमान हिन्दुओं की भीड़ के बराबर क्यों है।

निःसंदेह यह अंतर हिन्दुओं की जातिप्रथा के कारण है। जब तक जातिप्रथा रहेगी, हिन्दुओं

में संगठन नाम की कोई बात नहीं रहेगी और जब तक उनमें संगठन नहीं होगा हिन्दू

कमजोर और डरपोक रहेंगे। हिन्दू कहते हैं कि उनकी कौम बड़ी सहनशील है। मेरे मत

से यह बात सही नहीं है। अनेक अवसरों पर यदि उनका असहनीय रूप देखा जा सकता

है और कुछ अवसरों पर उनमें सहनशीलता देखी जाती है, तो उसका कारण यह है कि

या तो वे विरोधा करने में अत्यधिक शक्त हैं, या पूरी तरह उदासीन हैं। हिन्दुओं की यह

उदासीनता इस कदर उनकी आदत का हिस्सा बन चुकी है कि हिन्दू किसी अपमान या

अन्याय को बुजदिल बनकर सहता रहेगा। मौरिस के शब्दों में उनमें यह दिखाई देता है

कि ‘‘बड़े लोग छोटे लोगों को कुचल रहे हैं, ताकतवर लोग कमजोरों को मार रहे हैं, क्रूर

लोग निडर होकर विचरण कर रहे हैं, दयालु लोग साहस न होने के कारण चुप हैं और

श्रीमान लोग लापरवाह हैं।‘‘ हिन्दू देवता भी धौर्यवान और सहिष्णु हैं इसलिए अन्याय और

उत्पीड़न के शिकार हुए हिन्दुओं की दयनीय स्थिति की कल्पना करना असंभव नहीं है।

उदासीनता किसी समुदाय को लगने वाली सबसे घातक बीमारी है। हिन्दू परस्पर इतने

उदासीन क्यों हैं? मेरे विचार से यह उदासीनता जातिप्रथा के कारण है और इसके कारण

किसी अच्छे काम के लिए भी उनमें संगठन और सहयोग होना असंभव हो गया है।