मित्रे
मुझे जातपांत तोड़क मंडल के सदस्यों की स्थिति पर निश्चय ही खेद है, जिन्होंने
इस सम्मेलन की अधयक्षता करने के लिए मुझे आमंत्रित करने की महती कृपा की है। मुझे
यकीन है कि अधयक्ष के रूप में मेरा चुनाव करने पर उनसे अनेक प्रश्न पूछे जाएंगे। मंडल
को इस बात को स्पष्ट करने के लिए कहा जाएगा कि उसने लाहौर में हो रहे समारोह
की अधयक्षता करने के लिए बंबई से किसी व्यक्ति को क्यों बुलाया है। मुझे विश्वास है
कि मंडल को इस समारोह की अधयक्षता करने के लिए मुझसे कहीं अधिाक योग्य व्यक्ति
आसानी से मिल सकता था। मैंने हिन्दुओं की आलोचना की है। मैंने महात्मा के प्रभुत्व
पर संदेह प्रकट किया है, जिन्हें वे श्र)ा की दृष्ष्टि से देखते हैं। वे मुझसे घृणा करते
हैं। उनके लिए मैं उनके बाग में एक सांप के समान हूं, इसमें संदेह नहीं कि राजनीतिक
मनोवृत्ति के हिन्दू इस मंडल से इस बात का स्पष्टीकरण मांगेंगे कि इस सम्मानजनक पद
के लिए मुझे क्यों बुलाया गया है। यह एक बड़े साहस का काम है। अगर कुछ राजनीतिक
हिन्दू इसे अपमान समझते हैं तो मुझे इस पर कोई आश्चर्य नहीं होगा। इस पद पर मेरे
चुनाव से निश्चय ही धाार्मिक प्रवृत्ति के सामान्य हिन्दुओं को प्रसन्नता नहीं होगी। मंडल
से इस बात को स्पष्ट करने के लिए कहा जाएगा कि उसने अधयक्ष के चुनने में शास्=ीय
निषेधादेश की अवज्ञा क्यों की। शास्त्रें के अनुसार ब्राह्मण को ही तीनों वर्गों का गुरू
नियुक्त किया गया है। ‘‘वर्णानाम ब्राह्मणों गुरु‘‘, यही शास्त्रें का निर्देश है। इसलिए
मंडल जानता है कि एक हिन्दू को किससे शिक्षा लेनी चाहिए और किससे नहीं। शास्=
किसी हिन्दू को गुरू रूप में किसी भी ऐसे व्यक्ति को मा= इसलिए कि वह ज्ञानी है,
स्वीकार करने की अनुमति नहीं देते। यह बात महाराष्ट्र के एक ब्राह्मण संत रामदास ने
काफ़ी स्पष्ट कर दी थी, जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने शिवाजी को हिन्दू राज
की स्थापना के लिए प्रेरित किया था। रामदास ‘दासबोधा‘ नाम की अपनी मराठी काव्य
रचना में जो एक सामाजिक-राजनीतिक-धाार्मिक प्रबंधा है, हिन्दुओं को संबोधिात करते हुए
पूछते हैं कि क्या हम किसी अन्त्यज को इस कारण से अपना गुरु मान सकते हैं कि वह
एक पंडित द्धअर्थात् विद्वानऋ है। वह उत्तर देते हैं, नहीं। इन प्रश्नों का क्या उत्तर दिया
जाए, इस मामले को मैं मंडल पर छोड़ देता हूं। मंडल उन कारणों को बहुत अच्छी तरह
जानता है कि क्यों उन्हें अधयक्ष के लिए बंबई की यात्र करनी पड़ी और ऐसे व्यक्ति को
इसके लिए निर्धाारित करना पड़ा जो हिन्दुओं का इतना विरोधी हो तथा अपने स्तर को
इतना नीचे गिराकर एक अन्त्यज, अर्थात् अछूत को सवर्णों की सभा में भाषण देने के लिए
आमंत्रित करना पड़ा। जहां तक मेरा प्रश्न है, मैं कहना चाहूंगा कि मैंने इस निमं=ण को
अपनी तथा अपने अनेक अछूत साथियों की इच्छा के विरु) स्वीकार किया है। मैं जानता
हूं कि हिन्दू मुझसे उखड़े हुए है? मैं जानता हूं कि मैं उनके लिए स्वीकार्य व्यक्ति नहीं
हूं। यह सब कुछ जानते हुए, मैंने जानबूझकर अपने आपको उनसे दूर रखा है। मेरी उन्हें
कष्ट पहुंचाने की कोई इच्छा नहीं है। मैं अपने ही मंच से अपने ये विचार रख रहा हूं।
43
इससे पहले ही काफ़ी ईर्ष्या और उत्तेजना फ़ैल चुकी है। मेरी जिस बात को हिन्दू सुन
रहे हैं, उसे उनके मंच से उनके सामने कहने की मेरी कोई इच्छा नहीं है। मैं अपनी नहीं,
बल्कि आपकी इच्छा से यहां आया हूं। आप समाज सुधाार के काम में लगे हैं। इस कार्य
ने हमेशा ही मुझे प्रेरणा दी है और इसी कारण से मैंने महसूस किया है कि मुझे इस कार्य
में सहायता देने के अवसर को नहीं छोड़ देना चाहिए, विशेषकर ऐसे समय जब कि आप
समझते हैं कि मैं इसमें सहायता कर सकता हूं। मैं आज जो कुछ कहने जा रहा हूं, क्या
उससे आपको उस समस्या को सुलझाने में जिससे आप जूझ रहे हैं, किसी प्रकार से कोई
सहायता मिलेगी, इसका निर्णय आप करें। मैं जो कुछ करने की आशा करता हूं, वह यही
है कि मैं इस समस्या पर अपने विचार आपके सामने रखूं।