रानाडे का जन्मदिन मनाते समय हमें आलोचकों तथा विरोधियों की संभावित प्रतिक्रिया की उपेक्षा नहीं करनी होगी। आलोचक पूछेंगे कि रानाडे का जन्मदिन मनाने की क्या तुक है? उनका तर्क होगा कि नायक-पूजा के दिन तो कब के लद चुके हैं। विरोधी कहेंगे कि जब मैं गांधी तथा जिन्ना के मामले में नायक-पूजा की निंदा करता हूं तो श्री रानाडे को नायक‘ कैसे बना रहा हूं। यह बड़ा ही संगत प्रश्न है। यह सच है कि नायक-पूजा अब दम तोड़ रही है। उसके बारे में हमें कोई संदेह नहीं है। कालाईल के जमाने में भी वह दम तोड़ रही थी, जब उन्होंने बड़े ही रोष से अपने जमाने के विरुद्ध शिकायत करते हुए कहा था:
‘‘यह कैसा जमाना है। वह तो महापुरुषों के अस्तित्व को ही नकारता है, महापुरुष तो होने ही चाहिए, इसे भी वह नकारता है। हमारे आलोचकों को महापुरुष दिखाओ। उसके बारे में लेखा-जोखा दो, उसकी पूजा न करो, उसकी तो दर्जी की भांति नाप-जोख करो।’’
लेकिन निश्चय ही भारत में नायक-पूजा ने दम नहीं तोड़ा है। मूर्ति-पूजा के क्षेत्र में वह आज भी ‘अद्वितीय’ है। यहां धर्म में मूर्ति-पूजा है। यहां राजनीतिक में मूर्ति-पूजा है। भले ही दुर्भाग्य की बात हो, पर भारत के राजनीतिक जीवन में नायक और नायक-पूजा एक जीता जागता तथ्य है। मै। मानता हूं कि नायक-पूजा भक्त को भ्रष्ट और देश को नष्ट करती है। मैं आलोचना का उस हद तक स्वागत करता हूं, जिस हद तक वह एक चेतावनी देती है कि पहले हम अच्छी तरह छानबीन कर ही लें कि हमारा पुरुष महापुरुष है और फि़र हम उसकी पूजा शुरू करें। लेकिन दुर्भाग्य से यह कोई आसान काम नहीं है। उसका कारण है। यदि समाचार-पत्र में हों तो महापुरुष का उत्पादन बाएं हाथ का खेल है। कार्लाइल ने इतिहास के महापुरुषों का वर्णन करते समय एक मजेदार उक्ति का सहारा लिया। उन्होंने कहा कि वे अनेकों बैंक नोटों जैसे हैं। बैंक नोटों की भांति वे स्वर्ण के प्रतीक हैं। हमें देखना यह है कि वे जाली नोट तो नहीं हैं। मैं मानता हूं कि महापुरुषों की पूजा में हमें अधिक सचेत रहना चाहिए। उसका कारण है। इस देश में हम संभवतः एक ऐसी स्थिति में पहुंच चुक हैं कि जहां-जहां नोटिस बोर्डों पर लिखा हो ‘जेबकतरों से सावधान‘, वहां-वहां ऐसे नोटिस बोर्ड भी हों ‘महापुरुषों से सावधान‘। महापुरुषों की पूजा के पक्षधर कालाईल ने भी अपने पाठकों को सचेत करते हुए कहा था: ‘‘इतिहास में ऐसे ढेर सारे महापुरुष गिनाए गए हैं, जो झूठे और स्वार्थी थे।‘‘ गहरा खेद व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘विश्व का (श्रृद्धांजलि रूपी) वेतन (इन तथाकथित महापुरुषों) की जेबों में चला जाता है। विश्व का कार्य नहीं सधता। नायक तो बाहर निकल गए हैं; नीम हकीम भीतर घुस आए हैं।‘‘
रानाडे को देवताओं जैसा वह सम्मान तो नहीं मिला, जो भारत के इन महापुरुषों के भाग्य में आज बड़ा है। मिलता भी कैसे? उनके पास कोई सीधा ईश्वरीय संदेश तो था नहीं। न तो उनके पास कोई चमत्कार था और न ही किसी चमत्कार-प्रदर्शन का उन्होंने वायदा किया। न तो सरस्वती के अवतार थे और न ही उनके पास कोई दैवी शक्तियां थीं। लेकिन इन अभावों को उन्होंने पूरा किया। भले ही रानाडे ने प्रभुत्व और चमत्कार नहीं दिखाया, पर आपदाओं का पहाड़ भी हमारे सामने खड़ा नहीं किया। भले ही भारत की सेवा के लिए उनके पास कोई दैवी शक्तियां नहीं थीं, पर उनके दुरुपयोग के संकट से भी तो वह बचा रहा। भले ही वह सरस्वती के अवतार नहीं थे, पर उन्होंने बुद्धि और मनोवृत्ति का वह विकृत विंतडावाद भी तो नहीं दिखाया, जिसकी बुनियाद ही बेईमानी पर खड़ी होती है। उसने तो विश्वास के बीज बो दिए हैं और समझौते को दूभर बना दिया है। अतिउल्लास और असंयम पर उनका पूर्ण अंकुश था। उन्होंने अतिवाद का सहारा लेकर सस्ती प्रसिद्धि नहीं बटोरी। लोगों की देश-प्रेम की भावनाओं से हेरा-फ़ेरी और खिलवाड़ करके उन्होंने लोगों को गुमराह नहीं किया। उन्होंने कभी भी ऐसे घटिया हथकंडों का इस्तेमाल नहीं किया। उनमें शोर तो होता है, पर जोर नहीं। वे न तो त्रुटिहीन होते हैं और न ही धूर्तता विहीन। वे तो देश के प्रति उत्साही तथा निष्ठावान सेवकों की भी कमर तोड़ देते हैं, पंगु बना देते हैं। वे कैसे आगे बढ़े? संक्षेप में रानाडे तो एक बुद्धिमान कप्तान की भांति थे। वह जानता है कि केवल प्रभाव ओर प्रदर्शन के लिए महासागर के बीचोंबीच अपने जहाज के साथ चतुराई भरी चालबाजियां नहीं कर सकता और उसका कर्तव्य है कि वह उसे नियत बंदरगाह तक सुरक्षित ले जाए। संक्षेप में, रानाडे जाली बैंक नोट नहीं थे। उनकी पूजा करते समय हम यह अनुभव नहीं करते कि हम किसी झूठे और घटिया आदमी के सामने घुटन टेक रहे हैं।
वैसे भी रानाडे का यह जन्मदिन समारोह नायक-पूजा है ही नहीं। एक तो नायक-पूजा यह है कि हम उसके प्रति अपार आभार व्यक्त करें। नायक की जी-हुजूरी करना एक नितांत भिन्न प्रकार की नायक-पूजा है। पहली में कोई दोष नहीं है, पर दूसरी निःसंदेह अति जघन्य हैं पहली तो हर उदात्त चीज के प्रति मानव का आदर भाव है। महापुरुष तो केवल उसका साकार रूप होता है। दूसरी तो अपने स्वामी के प्रति खलनायक की स्वामीभक्ति है। पहली सदाचार का लक्षण है, तो दूसरी दुराचार का। पहली उसकी सोचने की शक्ति और कार्य करने की आजादी नहीं छीनती। दूसरी तो हमें काठ का उल्लू बनाती है। पहली में राज्य के लिए विनाश की संभावना नहीं होती। दूसरी में तो खतरा ही खतरा होता है। संक्षेप में, रानाडे का जन्मदिन मनाकर हम ऐसे आका की पूजा नहीं कर रहे हैं, जो न तो किसी के द्वारा चुना जाता है, न किसी के प्रति उत्तरदायी है और न किसी के द्वारा हटाया जा सकता है, बल्कि हम तो प्रशंसा-सुमनों से ऐसे नेता को श्रद्धांजलि दे रहे हैं, जिसने लोगों का मार्गदर्शन किया। उन्हें ढोरों की तरह हांका नहीं। उसने तो उनके सुविचारित निर्णय को कार्यरूप देने का प्रयास किया। उसने हेरा-फ़ेरी अथवा हिंसा से उन पर अपनी इच्छा लादने और थोपने का प्रयास नहीं किया।
यह जन-समुदाय नायक-पूजा के लिए एकत्रित नहीं हुआ है। यह तो बात का अवसर है कि हम रानाडे के राजनीतिक दर्शने को अपने मन में पुनः ताजा कर सकें। मेरे विचार में यह आवश्यक हो गया है कि हम समय-समय पर अपने मन में उसकी याद को ताजा करते रहें। कारण यह है कि उनका दर्शन खतरनाक और खोखला नहीं है, भले ही वह मंद हो। भले ही उसमें चमक-दमक न हो, फि़र भी वह सोना है। क्या किसी को संदेह है? यदि है तो वे बिस्मार्क, बाल्फ़ोर तथा मोर्ले के इन उद्गारों पर मनन करें। महान जर्मन नेता बिस्मार्क ने कहा था: ‘‘राजनीति तो संभव का मायाजाल है।‘‘
ब्रिटिश संविधान पर वाल्टर बाजेट की प्रसिद्ध पुस्तक की अपनी भूमिका में बाल्फ़ोर ने कहा है: ‘‘यदि हमें उस दीर्घकालीन प्रक्रिया के सही आधार को खोजना है जिसने मध्यकालीन राजतंत्र को आधुनिक लोकतंत्र में परिणत किया है और जिसके द्वारा अत्यधिक परिवर्तन हुआ है व अतिअल्प विनाश हुआ है, तो हमें प्रतिभा और सिद्धांत के स्थान पर स्वभाव और चरित्र का अध्ययन करना ही होगा। यह एक ऐसा सच है, जिसे याद रखना उन लोगों के लिए लाभकारी होगा, जिन्होंने पराए देशों में ब्रिटिश संस्थानों को शत-प्रतिशत ज्यों-का-त्यों अंगीकार किए जाने की सिफ़ारिश की है। ऐसा प्रयोग खतरे से खाली नहीं हो सकता। संविधानों की नकल करना तो आसान है, पर स्वभावों की नहीं और यदि ऐसा हो जाए कि उधार लिए हुए संविधान और स्वभाव की संगति न बैठे, तो इस असंगति के भयंकर दुष्परिणाम निकल सकते हैं। इसका कोई खास महत्व नहीं कि वहां के लोग कौन से अन्य गुणों से संपन्न हैं, यदि उनमें निम्न की कमी है जो इस दृष्टि से सर्वाधिक महत्व के हैं। यथा, यदि उनमें यह क्षमता नहीं है कि वे अपनी निष्ठाओं का क्रम-निर्धारण नहीं कर सकते तथा उनसे प्रभावित नहीं हो सकते( यदि वे स्वातंत्र्य के प्रति सहज रुचि और कानून के प्रति सहज आदरभाव नहीं रखते, यदि उनमें मधुर हास्य का अभाव है और वे बेईमान को बर्दाश्त करते हैं; यदि वे नहीं जानते कि कब और कैसे समझौता किया जाए; यदि वे भयंकर दुष्परिणामों के प्रति वह अविश्वास नहीं करते जिसे कभी-कभी गलत ढंग से तर्क का प्रभाव कहा जाता है; यदि भ्रष्टाचार से उन्हें घृणा नहीं होती और यदि उनके विभाजन या तो असंख्य या फि़र अति गहरे होते हैं तो ब्रिटिश संस्थानों का सफ़ल कार्यकरण कठिन अथवा असंभव हो सकता है। उन स्थानों पर तो वास्तव में इनके प्रति क्षीण संभावना है जहां संसदीय अनुनय-विनय की कलाओं तथा दल प्रबंधन की दक्षताओं को पूर्णता का सर्वोच्च स्तर प्रदान किया जाता हैं।‘‘
मोर्ले ने कहा है:
‘‘तार्किक पूर्णता के पीछे भागना उस सामाजिक ताने-बाने की सामग्री का अज्ञान जताना है, जिससे कि राजनेता का पाला पड़ता है। विचार अथवा संस्था में सजीव परिवर्तन के अभाव की उपेक्षा करना मोह तथा आसक्ति है। घड़ी-घड़ी ऐसे परिवर्तन करना, भले ही वे किए जा सकते हों, बज्र मूर्खता है। मार्मिक फ्रेंच उक्ति है कि छोटे-छोटे सुधार बड़े सुधारों के कट्टर शत्रु हैं। आमतौर पर इसका इस्तेमाल इस दृष्टि से किया जाता है कि वह सामाजिक विनाश का संकेत है।‘‘
ये वे सिद्धांत हैं जिन पर राजनीतिक सफ़लता निर्भर करती है। क्या वे रानाडे द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों से भिन्न हैं। यह रानाडे की महानता का प्रमाण है कि बिस्मार्क, बाल्फ़ोर तथा मोर्ले से वर्षों पूर्व उन्होंने इन सिद्धांतों का प्रतिपादन कर दिया था।
जिस पीढ़ी की सेवा रानाडे ने की, वह बुद्धिमान थी। उसने उन्हें अपना राजनीतिक पथ-प्रदर्शक, मित्र तथा दार्शनिक सलाहकार स्वीकार किया। उनकी महानता शाश्वत है। वे केवल वर्तमान पीढ़ी के ही नहीं, अपितु भावी पीढ़ियों के भी पथ-प्रदर्शक, मित्र तथा दार्शनिक सलाहकार बन सकते हैं।
एक आरोप रानाडे पर बहुधा लगाया जाता है। मेरा विचार है कि उसका उत्तर दे ही दिया जाए। उनके बारे में कहा जाता है कि उनका विचार था कि भारत पर अंग्रेजों की विजय विधि का विधान थी और भारत का इससे बढ़कर हित नहीं हो सकता कि वह ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर रहे और उसी में उसकी अंतिम नियति निहित है। संक्षेप में कहा जाए तो रानाडे पर आरोप लगाया जाता है कि वह भारत की स्वाधीनता के पक्षधर नहीं थे।
आरोप के आधार हैं, रानाडे के ये उद्गार:
‘‘इसे सहज ही स्वीकार नहीं किया जा सकता कि यह विधि का विधान ही है कि असंख्य भारतवासियों के अति विशाल जनसमूह को विदेशी प्रभुत्व के प्रभावों तथा प्रतिबंधों के अधीन सदियों तक रखा जाए जब तक इन प्रभावों तथा प्रतिबंधों का उद्देश्य बना रहे कि वे उन दिशाओं में लोगों की शक्ति तथा चरित्र के निर्माण में स्थायी सहयोग देते रहें, जिनमें कि भारतीय जातियां अति प्रभाव-ग्रस्त हैं। एक बात निश्चित है कि 500 वर्ष तक बने रहने के पश्चात् मुस्लिम साम्राज्य ढह गया और उसके कारण पंजाब तथा पूरे मध्य भारत और दक्षिणी भारत की पुरानी मूल जातियों को पुनः स्थापित होने का अवसर मिला। पुनः स्थापना के ये आधार पर आधारों से कहीं अधिक ठोस स्वरूप के थे, जिन्होंने प्रारंभिक मुस्लिम विजेताओं के आगे बड़ी आसानी से घुटने टेक दिए थे।‘‘
‘‘हिन्दु तथा मुसलमान, दोनों में ही उनके अनेक गुणों का अभाव है, जो व्यवस्था तथा सुव्यवस्थित सत्ता के प्रति प्रेम के परिचायक होते हैं। दोनों में अभाव हैं। वे नागर स्वतंत्रता से प्रेम नहीं करते। वे नागरिक जीवन के लिए आवश्यक गुणों का पालन नहीं करते। यांत्रिक कौशल के प्रति उनकी अभिरुचि नहीं है। विज्ञान और शोध में उनकी रुचि नहीं है। साहसपूर्ण खोज का उनमें साहस नहीं है। कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने का उनमें संकल्प नहीं है, तथा महिलाओं के प्रति उदात्त सम्मान की भावना उनमें नहीं है। पुरानी हिन्दू और पुरानी मुस्लिम सभ्यता की स्थिति ऐसी नहीं थी कि उसमें इन गुणों का प्रशिक्षण ऐसे तरीके से दिया जा सकता, जिससे भारत की जातियों को पश्चिमी यूरोप की जातियों के स्तर तक लाया जा सके। इसलिए शिक्षा के कार्य का पुनर्वीकरण करने की आवश्यकता पड़ी और अब यह कार्य विगत शताब्दी से भी अधिक समय से ब्रिटिश छत्रछाया में चल रहा है, जिसका परिणाम हम सबके सामने है।‘‘
इन बयानों पर केवल सरसरी दृष्टि डालने मात्र से ही हमें यह पता चल जाएगा कि यह आरोप बयानों को गलत पढ़ने के कारण नहीं, बल्कि उन्हें गलत समझने के कारण लगाया जाता है। बयान साफ़ तथा सीधा-साधा है। उसके विषय में अनुमान से भी यह नहीं कहा जा सकता कि उससे यह निष्कर्ष निकलता है कि रानाडे भारत की स्वतंत्रता के विरुद्ध थे। उस अर्थ में यह आरोप झूठा और निराधार है।
रानाडे के इन बयानों से उनके आत्म-सम्मान पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वे तो उनकी बृद्धिमत्ता तथा दूरदर्शिता को प्रमाणित करते हैं। इन बयानों से रानाडे क्या बताना चाहते थे? जैसा मैं समझता हूं मेरा विचार है कि रानाडे दो बातें बताना चाहते थे। पहली बात वह यह बताना चाहते थे कि ब्रिटेन की भारत पर जीत ने भारत को अपने आर्थिक तथा
सामाजिक ढांचे का पुनर्निर्माण करने, नवीकरण करने तथा सुधार करने के लिए समय व अवसर तथा आवश्यक सुरक्षा प्रदान की, जिससे भारत स्वतंत्र होने के लिए किसी भी विदेशी आक्रमण के दबाव को सहन करने के लिए पुनः सक्षम बन सके। दूसरी बात रानाडे यह बताना चाहते थे कि भारत जब तक एक राष्ट्र के रूप में स्वयं को संतोषजनक रूप से सुसंगठित न कर ले, वह विचार तथा भावना से एकजुट न हो जाए और समान नियति की भावना से ओत-प्रोत न हो जाए, उससे पहले यदि वह ब्रिटिश साम्राज्य से बाहर निकलता है तो वह स्वतंत्रता के नाम पर अव्यवस्था तथा विघटन को आमंत्रित करता है।
इन सच्चाइयों का कितना अधिक महत्व है? लोग इस बात को महसूस नहीं करते कि सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक संघर्षों के सुचारु समाधान में सुरक्षा की कितनी बड़ी भूमिका होती है। जो समाज प्रगति करना चाहता है, उसमें ये संघर्ष होते ही हैं। स्वर्गीय प्रो- मेटलैंड से एक बार इस बात को स्पष्ट करने के लिए यह प्रश्न पूछा गया कि संसदीय संस्थाएं इंग्लैंड में फ़लीफ़ूलीं और यूरोप में वे अपनी जड़ें जमाने में असफ़ल रहीं, इसका क्या कारण है? उन्होंने जो उत्तर दिया, उससे सुरक्षा के महत्व का पता चलता है। उन्होंने कहा कि यह अंतर इंग्लिश चैनल के कारण है। इस उत्तर से वह यह बताना चाहते थे कि जब इंग्लैड अपनी राजनीतिक व्यवस्था में सुधार कर रहा था इंग्लिश चैनल के कारण इंग्लैंड विदेशी आक्रमण से निरापद था और इसलिए लोगों के लिए स्वतंत्रता हेतु अपने राजा के विरुद्ध लड़ना निरापद हो गया और राजा के लिए भी अपनी जनता को संघर्ष करने की अनुमति देना निरापद हो गया। सुरक्षा के इस महत्व पर अब्राहम लिंकन ने भी जोर दिया था। अमरीकी राजनीतिक संस्थाएं शाश्वत क्यों बनी रहीं, इस बात को बताते हुए लिंकन ने कहा था:
‘‘यदि यूरोप, एशिया और अफ्रीका की सभी सेनाएं एक साथ मिल जाएं और उनका सेनापति नेपोलियन बोनापार्ट हो, तब भी वे ओहियो नदी से जबरदस्ती जल की एक बूंद नहीं ले सकतीं या एक हजार वर्ष तक प्रयास करने पर भी ब्लू रिज को पार नहीं कर सकतीं।‘‘
इस उक्ति में लिंकन सामाजिक पुनर्निर्माण के लिए सुरक्षा के महत्व और उसकी आवश्यकता पर भी बल दे रहे थे। जिस प्रकार इंग्लैंड तथा अमरीका सुरक्षित देश हैं, उस प्रकार से भारत एक सुरक्षित देश नहीं है। उस तक पहुंचने के मार्ग हैं, चाहे वे मार्ग थल मार्ग हों, जल-मार्ग हों या नभ-मार्ग। चूंकि भारत की सुरक्षा नहीं है, इसलिए यह डर है कि जब भारत अपने को पुनः व्यवस्थित कर रहा होगा, तब यदि बाहर से आक्रमण हुआ तो वह टूट जाएगा। भारत जब अपने को व्यवस्थित करेगा, तब उसे सुरक्षा के रूप में निर्जल गोदी चाहिए और ब्रिटिश साम्राज्य उसके लिए एक निर्जल गोदी है। कौन कह सकता है कि रानाडे ने अपने देशवासियों को उस सुरक्षा के महत्व को बताकर बुद्धिमानी नहीं की, जिसे ब्रिटिश साम्राज्य दे सकता है और जिसकी भारत को बहुत आवश्यकता है।
पराधीन राष्ट्र प्रबल राष्ट्र के बंधन से स्वयं को छुड़ाने और अपने को स्वतंत्र घोषित करने के लिए तो सदैव आतुर रहता है। किन्तु स्वयं उस पर स्वतंत्रता का क्या प्रभाव पड़ेगा, उसके बारे में शांत मन से वह यदाकदा ही विचार करता है। तथापि इस विषय में विचार करना बहुत महत्वपूर्ण है। प्रायः यह अनुभव नहीं किया जाता कि पराधीन राष्ट्र को प्रबल राष्ट्र के साथ बांधने वाले बंधन प्रबल राष्ट्र की तुलना में पराधीन राष्ट्र के लिए अधिक आवश्यक होते हैं। यह पराधीन राष्ट्र की आंतरिक परिस्थितियों पर निर्भर होता है। पराधीन राष्ट्र एक अखंड राष्ट्र हो सकता है। पराधीन राष्ट्र में कई खंड हो सकते हैं। ये खंड ऐसे भी हो सकते हैं, जो कभी भी एकजुट नहीं होंगे। अथवा ये खंड ऐसे भी हो सकते हैं कि अभी तक तो वे एकजुट न हों, परंतु यदि उन्हें लंबे अर्से तक एक साथ रख दिया जाए तो वे एकजुट हो जाएंगे। पराधीन राष्ट्र पर बंधन तोड़ने से जो प्रभाव पड़ेगा, वह उसकी आंतरिक परिस्थितियों पर निर्भर करेगा। जो पराधीन राष्ट्र समग्र रूप से एक इकाई है, उसके द्वारा बंधन तोड़ने से सब अच्छा ही अच्छा हो सकता है। जिस पराधीन राष्ट्र के खंड कभी एकजुट नहीं हो सकते, उसके द्वारा बंधन तोड़ने का कोई अच्छा या बुरा, किसी भी प्रकार का परिणाम नहीं हो सकता। यह इस बात पर निर्भर करता है कि किस दृष्टिकोण से देखा जा रहा है? किन्तु तीसरे प्रकार के मामले में निश्चित रूप से खतरा है। जहां एकीकरण वांछनीय और संभव है, वहां समय से पहले बंधन को तोड़ने से निश्चित रूप से विघटन होगा। वह एक निरर्थक कार्य होगा। यह वह दूसरा खतरा है, जिसके प्रति रानाडे अपने देशवासियों को सचेत करा चाहते थे।
यह कौन कह सकता है कि रानाडे ने इस चेतावनी को देकर बुद्धिमानी नहीं की थी? जो व्यक्ति इस चेतावनी की आवश्यकता पर शंका करना चाहते हैं, उन्हें केवल चीन की ओर देखना होगा। 30 वर्ष पहले चीन में क्रांति हुई थी। क्या चीन के लोग व्यवस्थित हो गए हैं? जी नहीं, लोग अभी तक पूछ रहे हैं, ‘‘चीनी क्रांति का चक्र कब रुकेगा।‘‘
जो व्यक्ति चीन की परिस्थितियों को जानते हैं, वे केवल यही कह सकते है, ‘‘शायद अगले सौ वर्षों में।‘‘ क्या चीन में ऐसी स्थिर सरकार स्थापित हुई है, जिसके प्रति सभी चीनियों की निष्ठा हो? स्थिति इससे बहुत भिन्न है। वास्तव में, यदि सच-सच कहा जाए तो चीन में क्रांति के बाद पहले से भी आपसी फ़ूट है और अधिक विघटन हो गया है। क्रांति से इतनी अधिक अव्यवस्था उत्पन्न हो गई है कि उसकी स्वतंत्रता को खतरा हो गया है। इस तथ्य से इनेगिने भारतीय अवगत हैं कि यदि चीन ने क्रांति से उत्पन्न अव्यवस्था के परिणामस्वरूप अपनी स्वतंत्रता नहीं खोई है तो उसका कारण केवल यह है कि उसके शत्रु तो बहुत से थे, पर उनमें यह सहमति नहीं हुई कि उनमें से चीन को कौन निगले। चीनी क्रांति बहुत भारी भूल थी। यह युआन-शिह-काई विचार था। उन्होंने कहा था: ‘‘मुझे इस बारे में संदेह है कि क्या इस समय चीन के लोग गणतंत्र के लिए परिपक्व हैं और क्या वर्तमान परिस्थितियों में चीनी लोगों के लिए गणतंत्र को अनुकूल बना लिया गया है। सीमित राजतंत्र प्रणाली को अपनाने से परिस्थितियां फि़र से तेजी से सामान्य और स्थिर हो जाएंगी। पर लोगों की प्रकृति या चीन की वर्तमान परिस्थितियों के प्रतिकूल किसी भी प्रकार की प्रायोगिक सरकार से यह लक्ष्य कहीं देरी से प्राप्त होगा। मैं वर्तमान सम्राट को इसलिए बनाए रखना चाहता हूं कि मैं संवैधानिक राजतंत्र में विश्वास करता हूं। यदि हमें इस प्रकार की सरकार रखनी है तो लोग उन्हें ही रखने के लिए सहमत होंगे ओर उसके स्थान पर किसी और को रखना नहीं चाहेंगे। इस संकट की घड़ी में मेरा एकमात्र लक्ष्य चीन को विघटन से और उसके बाद आने वाली आपदाओं से बचाना है।‘‘
जो व्यक्ति यह सोचते हैं कि चीन की स्थिति भारत के लिए उदाहरण नहीं, बल्कि एक चेतावनी के समान होनी चाहिए, वे रानाडे पर भारत की स्वतंत्रता या विरोध करने के लिए दोषारोपण करने के स्थान पर इस बात से प्रसन्न होंगे कि रानाडे के पास समय से पहले होने वाली क्रांति की बुराइयों का पूर्वानुमान करने और उसी प्रकार के कदम को न उठाने के लिए अपने देशवासियों को चेतावनी देने की बुद्धि थी।