रानाडे की तुलना अन्य लोगों से कैसे की जाए? तुलनाएं सदैव अप्रिय होती हैं। साथ ही, यह भी सच है कि तुलना से ही व्यक्ति प्रसिद्ध होता है। वास्तव में, तुलना करते समय यह बात अवश्य ध्यान में रखनी चाहिए कि रुचिकर तथा शिक्षाप्रद तुलना होने के लिए वह सदैव समान व्यक्तियों के बीच ही की जानी चाहिए। सौभाग्य से यहां तुलना की गुंजाइश है। रानाडे एक समाज सुधारक थे और एक समाज सुधारक होने के नाते उनकी तुलना किसी अन्य समाज सुधार के साथ की जा सकती है। विशेष रूप से यह तुलना रानाडे तथा ज्योतिबा फ़ुले के मध्य हो सकती है। फ़ुले का जन्म 1827 में तथा स्वर्गवास 1890 में हुआ था। रानाडे का जन्म 1842 में तथा स्वर्गवास 1901 में हुआ था। इस प्रकार फ़ुले तथा रानाडे समकालीन थे और दोनों श्रेष्ठ व प्रमुख समाज सुधारक थे। कुछ लोग शायद रानाडे की अन्य राजनीतिज्ञों के साथ तुलना पर इस आधार पर आपत्ति कर सकते हैं कि रानाडे राजनीतिज्ञ नहीं थे। यह कहना कि रानाडे राजनीतिज्ञ नहीं थे, राजनीतिज्ञ शब्द को एक बहुत ही संकीर्ण तथा संकुचित अर्थ में बांधना है। एक राजनीतिज्ञ केवल राजनीति का ही कार्य नहीं करता, बल्कि वह विशेष विश्वास का भी प्रतिनिधित्व करता है, जिसके अंतर्गत राजनीति के तौर-तरीके तथा सिद्धांत शास्त्र, दोनों ही आते हैं। रानाडे ने राजनीति की ऐसी धारा की स्थापना की थी, जो न केवल उसके तौर-तरीके के लिए, बल्कि उसके सिद्धांत पक्ष के लिए भी अपना अलग महत्व रखती थी। इस दृष्टि से रानाडे राजनीतिज्ञ थे और उनकी तुलना सार्थक रूप से अन्य राजनीतिज्ञों से की जा सकती है। अन्य राजनीतिज्ञों तथा समाज सुधारकों से रानाडे की तुलना शिक्षाप्रद और ज्ञानवर्धक ही होगी। उसके लिए पर्याप्त सामग्री भी है। सवाल वास्तव में समय और रूचि का है। समय इतना नहीं है कि रानाडे की तुलना समाज सुधारकों तथा राजनीतिज्ञों से भी की जा सके। मुझे वास्तव में निर्णय करना होगा कि रानाडे की तुलना समाज सुधारकों से करूं या राजनीतिज्ञों से। यह रुचि का विषय है। यदि मुझ पर छोड़ दिया जाता तो मैं तो यही पसंद करता कि उपलब्ध समय में रानाडे की तुलना फ़ुले से करता। मेरी राय में बुनियादी दृष्टि से समाज सुधार राजनीतिक सुधार से अधिक महत्वपूर्ण है। खेद है कि मेरी रुचि श्रोताओं की रुचि से भिन्न है। मेरा विचार है कि यदि श्रोताओं का समय लेना है तो मुझे अपने से कहीं अधिक महत्व उनकी रुचियों और अरुचियों को देना ही होगा। सामाजिक सुधार के प्रति उत्साह का तफ़ूान शांत हो गया है। राजनीति के उन्माद ने भारत की जनता को अपने पाश में जकड़ लिया है। राजनीति एक नशा बन गई है। जितना अधिक उसका सेवन करो, उतनी कहीं अधिक लालसा उसके लिए बढ़ती जाती है। जो काम मैं कर रहा हूं, वह बड़ा ही अप्रीतिकर है। मैं उसे करने का दुस्साहस इसलिए कर रहा हूं कि यह मेरा कर्तव्य है कि मैं सविस्तार इस बारे में बताऊं और लोगों की इस जिज्ञासा को शांत करूं कि रानाडे के राजनीतिक दर्शन का वास्तव में क्या महत्व है और वर्तमान राजनीतिज्ञों में इनका क्या स्थान है।
आज के वे कौन से राजनीतिज्ञ हैं, जिनके साथ रानाडे की तुलना की जा सकती है? रानाडे अपने समय के महान राजनीतिज्ञ थे। अतः उनकी तुलना आज से सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति से ही करनी चाहिए। भारत के क्षितिज पर दो महापुरुष हैं और वे इतने महान हैं कि उन्हें बिना नाम लिए पहचाना जा सकता है। वे है।, गांधी और जिन्ना। वे कैसे इतिहास की रचना करेंगे, इसे तो भावी पीढ़ी ही बताएगी। हमारे लिए तो इतना काफ़ी है कि निर्विवाद रूप से वे अखबारों की सुर्खियों पर छाए हुए हैं। उनके हाथ में बागडोर है। एक हिन्दुओं का नेता है, तो दूसरा मुस्लिमों का। वे आज के आदर्श पुरुष और नायक हैं। मैं उनकी तुलना रानाडे से करना चाहता हूं। रानाडे की तुलना में वे कैसे हैं? इसके लिए यह जरूरी है कि उनके उन स्वभावों तथा तौर-तरीकों का कुछ वर्णन किया जाए, जिनके कारण हम उनसे परिचित हो गए हैं, उनके मूल्यांकन के बारे में मैं केवल अपने विचार प्रस्तुत कर सकता हूं। सबसे पहली बात मेरे मन में यह कौंधती है कि जहां पर उनके विराट अहंभाव का संबंध है, उन जैसे अन्य दो व्यक्तियों को खोज पाना कठिन ही है। उनके लिए व्यक्तिगत प्रभुत्व ही सब कुछ है और देश-हित तो शतरंज की गोट है। उन्होंने भारतीय राजनीति को िनजी मल्ल-युद्ध का अखाड़ा बना रखा है। परिणामों की उन्हें कोई परवाह नहीं। वास्तव में तो उन्हें उनकी सुध तभी आती है, जब वे घटित हो जाते है। जब वे घटित हो जाते हैं तो या तो वे उसके कारण को भुला देते हैं, या यदि वे उसे याद भी रखते हैं तो वे उसकी उपेक्षा कर देते हैं। वे आत्म-तुष्टि की ओढ़नी ओढ़ लेते हैं और वह उनके सभी पश्चात्तापों को हर लेती है। वे विलक्षण एकाकीपन के ऊंचे मंच पर खड़े हो जाते हैं। वे अपने बराबरी वालों से ओट खड़ी कर लेते हैं। वे अपने से घटिया लोगों से मेलजोल पसंद करते हैं। आलोचना से वे बड़े क्षुब्ध तथा व्यग्र हो जाते हैं, पर चाटुकारों की चाटुकारिता की चाट वे बड़े प्रेम से खाते हैं। दोनों ने एक अद्भुत रंगमंच तैयार किया है और वे चीजों को इस ढंग से प्रस्तुत करते हैं कि जहां भी वे जाते हैं, वहां सदा उनकी जय-जयकार होती है। निश्चय ही दोनों सर्वोच्च होने का दावा करते हैं। यदि सर्वोच्चता ही उनका दावा होती तो यह अधिक अचरज की बात नहीं होती। सर्वोच्चता के अलावा दोनों इस बात का दावा करते हैं कि उनसे तो कभी भूल व चूक हो ही नहीं सकती। धर्मपरायण नौवें पोप के पवित्र शासनकाल में जब अचुकत्व का अहं ऊन रहा था तो उन्होंने कहा था, ‘‘पोप बनने से पूर्व मैं पोपीय अचुकत्व में विश्वास रखता था, अब मैं उसे अनुभव करता हूं।‘‘ यह ठीक ही रवैया इन दो नेताओं का है, जिन्हें विधाता ने अपनी असावधानी के क्षणों में हमारे नेतृत्व के लिए नियुक्त किया है। सर्वोच्चता तथा अचूकत्व की इस भावना को समाचारपत्रें ने हवा दी है, यह तो कहना ही पड़ेगा। मेरे विचार में नार्थक्लिफ़ छाप की जिस पत्रकारिता को वर्णन के लिए गार्डिना ने जिस भाषा का प्रयोग किया है, वह भारत में पत्रकारिता की वर्तमान स्थिति पर ठीक-ठीक लागू होती है। कभी भारत में पत्रकारिता एक व्यवसाय था। अब वह व्यापार बन गया है। वह तो साबुन बनाने जैसा है, उससे अधिक कुछ भी नहीं। उसमें कोई नैतिक दायित्व नहीं है। वह स्वयं केा जनता का जिम्मेदार सलाहकार नहीं मानता। भारत की पत्रकारिता इस बात को अपना सर्वप्रथम तथा सर्वोपरि कर्तव्य नहीं मानती कि वह तटस्थ भाव से निष्पक्ष समाचार दे, वह सार्वजनिक नीति के उस निश्चित पक्ष को प्रस्तुत करे जिसे वह समाज के लिए हितकारी समझे, चाहे कोई कितने भी उच्च पद पर हो, उसकी परवाह न किए बिना किसी भय के उन सभी को सीधा करे और लताड़े, जिन्होंने गलत अथवा उजाड़ पथ का अनुसरण किया है। उसका तो प्रमुख कर्तव्य यह हो गया है कि नायकत्व को स्वीकार करें और उसकी पूजा करे। उसकी छत्रछाया में समाचारपत्रें का स्थान सनसनी ने, विवेक-सम्मत मत का विवेकहीन भावावेश ने, उत्तरदायी लोगों के मानस के लिए अपील ने, दायित्वहीनों की भावनाओं के लिए अपील ने ले लिया। लार्ड सेलिसबरी ने नार्थक्लिफ़ पत्रकारिता के बारे में कहा है कि वह तो कार्यालय-कर्मचारियों के लिए कार्यालय-कर्मचारियों का लेखन है। भारतीय पत्रकारिता तो उससे भी दो कदम आगे है। वह तो ऐसा लेखन है, जैसे ढिंढोरचियों ने अपने नायकों का ढिंढोरा पीटा हो। नायक पूजा के प्रचार-प्रसार के लिए कभी भी इतनी नासमझी से देशहित की बलि नहीं चढ़ाई गई है। नायकों के प्रति ऐसी अंधभक्ति तो कभी देखने में नहीं आई, जैसी कि आज चल रही है। मुझे प्रसन्न्ता है कि आदर योग्य कुछ अपवाद भी हैं। लेकिन वे ऊंट के मुंह में जीरे के समान हैं और उनकी बातों को सदा ही अनसुना कर दिया जाता है। समाचार-पत्रें की वाहवाही का कवच धारण करके इन दोनों महानुभावों की प्रभुत्व जमाने की भावना ने तो सभी मर्यादाओं को तोड़ डाला है। अपने प्रभुत्व से उन्होंने न केवल अनुयायियों को, बल्कि भारतीय राजनीति को भी भ्रष्ट किया है। अपने प्रभुत्व से उन्होंने अपने आधे अनुयायियों को मूर्ख तथा शेष आधों का पाखंडी बना दिया है। अपनी सर्वोच्चता के दुर्ग को सुदृढ़ करने में उन्होंने ‘बड़े व्यापारिक घरानों‘ तथा धन-कुबेरों की सहायता ली है। हमारे देश में पहली बार पैसा संगठित शक्ति के रूप में मैदान में उतरा है। जो प्रश्न प्रेसीडेंट रूजवेल्ट ने अमरीकी जनता के सामने रखे थे, वे यहां भी उठेंगे, यदि वे पहले नहीं उठे हैं: शासन कौन करेगा, पैसा या मानव? कौन नेतृत्व करेगा, पैसा या प्रतिभा? सार्वजनिक पदों पर कौन आसीन होगा, शिक्षित, स्वतंत्र, देशभक्त अथवा पूंजीवादी गुटों के सामंती दास? सामंती दास? जो भी हो फि़लहाल तो भारतीय राजनीति का हिन्दू वंश अध्यात्म की ओर उन्मुख होने के बजाए नख से शिख तक अर्थ-प्रधान और धन-लोलुप हो गया है। यहां तक कि वह भ्रष्टाचार का पर्याप्त बन गया है। अनेक सुसंस्कृत व्यक्ति इस मलकुंड से कतरा रहे हैं। राजनीति तो असह्य गंदगी और मल वाले गंदे नाले जैसी बन गई है। राजनीति में भाग लेने और गंदी नाली साफ़ करने में कोई भेद नहीं रह गया है।
इन दो महापुरुषों के हाथों में रानीतिक बेतुके कार्यों की होड़ बनकर रह गई है। यदि गांधीजी को महात्मा गांधी कहा जाता है, तो जिन्ना को कायदे आजम कहा ही जाना चाहिए। यदि गांधी की कांग्रेस है, तो जिन्ना की मुस्लिम लीग होनी ही चाहिए। यदि कांग्रेस की कार्यकारिणी समिति और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी है, तो मुस्लिम लीग की भी कार्यकारिणी समिति और परिषद होनी ही चाहिए। कांग्रेस अधिवेशन के बाद लीग का अधिेवशन होना ही चाहिए। यदि कांग्रेस कोई बयान जारी करती है तो लीग को भी वैसा ही करना ही चाहिए। यदि कांग्रेस सत्तरह हजार शब्दों का संकल्प पारित करती है, तो मुस्लिम लीग को कम से कम अठारह हजार शब्दों का तो संकल्प पारित करना ही चाहिए। यदि कांग्रेस का अध्यक्ष कोई प्रेस कांफ्रेंस बुलाए, तो मुस्लिम लीग का अध्यक्ष भी अवश्य ही वैसा करे। यदि कांग्रेस संयुक्त राष्ट्र से कोई अपील करे, तो मुस्लिम लीग भी पीछे क्यों रहे। कब यह सब समाप्त होगा? कब उनके बीच कोई समझौता होगा, निकट भविष्य में तो कोई आशा नहीं है। वे केवल अनर्गल शर्तों को लेकर ही भेंट करेंगे। जिन्ना का आग्रह है कि गांधी स्वीकार करें कि वह हिन्दू हैं। गांधी का आग्रह है कि जिन्ना स्वीकार करे कि वह भी एक मुस्लिम नेता है।
कूटनीतिज्ञता का ऐसा खोखला और दयनीय दिवालियापन तो कभी देखने में नहीं आया, जैसा कि भारत में इन दोनों नेताओं के आचरण में दीख रहा है। वे वकीलों की भांति लंबे-चौड़े अनंत भाषण दे रहे हैं। वकीलों का तो काम ही है कि वह बात-बात पर बहस करें, कुछ भी स्वीकार न करें और समय का रुख देखकर बात करें। गतिरोध को समाप्त करने के लिए उनमें से किसी को भी कोई सुझाव दें तो सदा यही उत्तर मिलेगा, ‘नहीं‘। उनमें से कोई भी समस्या के उस समाधान पर विचार नहीं करेगा, जो सनातन नहीं है। प्रसिद्ध वाणिज्यिक उक्ति के अनुसार उनके चक्कर में फ़ंसकर राजनीति का ‘दिवाला पिट गया है‘ और कोई भी राजनीतिक लेन-देन नहीं हो सकता।
इन दोनों की तुलना में रानाडे कैसे हैं? इस बारे में मेरा अपना कोई निजी अनुभव नहीं है। पर दूसरों ने जो कहा है, उसे मैंने पढ़ा है। उसके आधार पर मैं कह सकता हूं कि वे कैसे रहे होंगे। अहंभाव तो उनमें था ही नहीं। अपनी उपलब्धियों के आधार पर यदि वे कितना भी गर्व ही नहीं, अपितु धृष्टता भी कर लेते तो भी अनुचित नहीं होगा। लेकिन वे तो अति सरल व्यक्ति थे। गंभीर युवा वर्ग उनकी विद्वत्ता और हंसमुख स्वभाव पर मुग्ध था। अनेक युवक तो पूर्णतया उनके रंग में रंग गए। उन्होंने उनके उदात्त स्वभाव और प्रभाव को ग्रहण किया और अपने पूज्य शिक्षक के प्रति असीम श्रद्धा रखते हुए अपने संपूर्ण जीवन को उनकी शिक्षा के अनुरूप ढाल लिया। वह कभी भी मूर्खों की प्रशंसा से फ़ूलकर कुप्पा नहीं हुए। वह कभी भी अपनी बराबरी वालों से मिलने से नहीं कतराए। उसी के अनुसार उनका लेन-देन चलता रहा। उन्होंने कभी अपने को अंतःकरण की आवाज पर निर्भर करने वाला रहस्यवादी घोषित नहीं किया। वह तर्कनिष्ठ थे। वह सदा ही अपने विचारों को तर्क और अनुभव की कसौटी पर कसे जाने के लिए तत्पर रहते थे। उनकी महानता सहज एवं स्वाभाविक थी। न तो उन्हें किसी स्टेज की और न ही किसी ओढ़ी गई सनक की या विज्ञापन के बल पर खरीदे गए समाचारपत्रें के सहारे की कोई जरूरत थी। जैसा कि मैं बता चुका हूं, रानाडे मुख्यतः समाज सुधारक थे। वह ऐसे राजनेता नहीं थे, जो राजनीति का व्यापार करता है। लेकिन भारत की राजनीतिक प्रगति में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। कुछ ऐसे राजनेताओं के तो वह गुरु रहे, जिन्होंने असाधारण सफ़लताएं प्राप्त कीं और अपनी प्रतिभा से अपने आलोचकों को चमत्कृत कर दिया। कुछ का उन्होंने मार्गदर्शन किया, पर सभी को उन्होंने दर्शन का पाठ पढ़ाया।
रानाडे का राजनीतिक दर्शन क्या था? तीन सूत्रें में उनका सार इस प्रकार है:
- किसी कोरे काल्पनिक आदर्श की तो हमें स्थापना करनी ही नहीं चाहिए। निश्चय
ही आदर्श ऐसा होना चाहिए कि वह आश्वासन दे कि वह व्यवहार योग्य है।
- राजनीति में बुद्धि और सिद्धांत से कहीं अधिक महत्व जन-भावना और जनस्वभाव का है। संविधान की रचना के विषय में तो खासतौर पर ऐसा ही है। कपड़ों की भांति संविधान भी रुचित का विषय है। दोनों ही सही नाम के हों, दोनों ही रुचिकर हों।
- राजनीतिक वार्ता में नियम यही होना चाहिए कि क्या संभव है। इसका अर्थ यह नहीं कि जो भी दिए जाने का प्रस्ताव किया जाए, उसी से हम संतोष कर लें। जी नहीं। इसका अर्थ है कि जो भी दिए जाने का प्रस्ताव किया जाए, उसे तो स्वीकार कर ही लेना चाहिए, जब कि हम जानते हों कि हमारा दबाव इतना भारी नहीं है कि वह विरोधी को और अधिक देने के लिए विवश कर सके।
रानाडे के राजनीतिक दर्शन के ये तीन प्रमुख सिद्धांत हैं। उनका दिग्दर्शन अति सरल कार्य है। उसके लिए उनके लेखों तथा भाषणों से समुचित उद्धरण दिए जा सकते हैं। पर उसके लिए न तो समय है और न ही कोई आवश्यकता है।, क्योंकि रानाडे के भाषणों तथा लेखों का अध्ययन करने वाले के लिए वे स्पष्ट होंगे ही। इन तीन सिद्धांतों के बारे में रानाडे से विवाद करने वाला हो ही कौन सकता है और यदि हो भी तो विवाद किस पर करेगा? सर्वप्रथम के बारे में कोई स्वप्न-द्रष्टा ही विवाद करेगा। हमें उसकी ओर ध्यान देने की कोई जरूरत नहीं है। दूसरा सिद्धांत इतना स्पष्ट है कि यदि हम उसकी उपेक्षा करेंगे तो हम ही नुकसान उठाएंगे। तीसरा प्रस्ताव कुछ ऐसा है, जिसके बारे में मतभेद हो सकता है। दरअसल, इसी ने उदार पंथियों को कांग्रेसियां से अलग किया। मैं उदारपंथी नहीं हूं, पर मुझे पूर्ण विश्वास है कि रानाडे का दृष्टिकोण सही था। सिद्धांत के बारे में कोई समझौता नहीं हो सकता और होना भी नहीं चाहिए। लेकिन यदि एक बार सिद्धांत के बारे में सहमति हो जाए तो इस बारे में कोई आपत्ति नहीं हो सकती कि उसे किस्तों में भुनाया जाए। राजनीति में तो किस्तें चलेंगी ही और जब सिद्धांत को स्वीकार कर लिया जाता है तो वह हानि नहीं पहुंचाता और वास्तव में ऐसा हो सकता है कि किन्हीं परिस्थितियों में वह नितांत लाभप्रद हो। इस तीसरे सिद्धांत के बारे में रानाडे और तिलक के बीच वास्तव में कोई मतभेद नहीं था, केवल एक अपवाद था। तिलक का विचार था कि दबाव डालकर संभव को अधिक से अधिक संभव बनाया जा सकता है। रानाडे दबावों को संदेह ही दृष्टि से देखते थे। बस केवल यही भेद था। शेष के बारे में वह सहमत थे। दबाव के प्रभाव से रानाडे के राजनीतिक दर्शन का महत्व नहीं घटता। कौन नहीं जानता कि कौन से दबाव हमारी झोली में हैं। हमने पुराने-नए सभी को तो आजमा लिया है। नतीजा क्या निकला, इसे बताने की जरूरत नहीं।