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अध्याय – 7 – रानाडे, गांधी और जिन्ना

रानाडे का उद्देश्य अगर नई व्यवस्था बनाना नहीं था तो प्राचीन व्यवस्था का परिमार्जन करना अवश्य था। उन्होंने हिन्दू समाज के नैतिक स्तर में सुधार लाने पर जोर दिया। यदि उनकी बातों को सुना जाता और उसका अनुसरण किया जाता तो कम से कम इस व्यवस्था की कठोरता तो समाप्त हो जाती है। भले ही इससे सामुदायिक समझौते को टाला नहीं जा सकता था, पर उसे आसान तो बनाया जा सकता था। उनके प्रयासों से जो कि सीमित थे, पारस्परिक विश्वास का मार्ग खुल जाता। परंतु राजनीतिक लोग तो राजनीतिक सत्ता के दीवाने हो गए थे और उसने उनको पूरी तरह से इतना अंधा कर दिया था कि उन्हें इसके अलावा किसी और चीज में कोई गुण नजर नहीं आता था। रानाडे को अपनी करनी का दंड मिला। क्या राजनीतिक सुरक्षा की स्वीकृति, सामाजिक सुधार की आवश्यकता को नकारने के लिए दंड नहीं है?

रानाडे को उस क्षेत्र में कितनी सफ़लता मिली, जिसमें उन्होंने इतनी प्रमुख भूमिका अदा की थी? कुछ अर्थों में यह प्रश्न बहुत महत्व का नहीं हैं? उपलब्धि कभी भी महानता का सच्चा मापदंड नहीं होती। जैसा कार्लाइल ने कहा, ‘‘हाय! हम यह भलीभांति जानते हैं कि आदर्शों को कभी भी व्यवहार में पूर्णतया मूर्त रूप नहीं दिया जा सकता और यह ठीक ही होगा कि हम उसके किसी सहनीय सामीप्य को साभार स्वीकार कर लें।‘‘ आदर्शों को हमेशा बहुत दूर ही रहना चाहिए। शिलर शिकायत भरे ढंग से कहते हैं, ‘‘हमारे इस असहाय संसार में किसी भी व्यक्ति को वास्तविकता के अति अल्प परिणाम केा पूर्णतया के पैमाने से नहीं मापना चाहिए। हम उसे बुद्धिमान व्यक्ति नहीं मानेंगे; हम उसे एक रुग्ण, असंतुष्ट, मूर्ख व्यक्ति मानेंगे। और फि़र भी रानाडे की उपलब्धि का रिकार्ड बिल्कुल शून्य नहीं था। उस समय के समाज सुधारकों के समक्ष जो समस्याएं थीं, वे राय बहादुर पी- आनंद चार्ली द्वारा तैयार समाज सुधारक संबंधी विवरण में दी गई हैं। वे पांच थीं: (1) बाल विवाह, (2) विधवा पुनर्विवाह, (3) हमारे देशवासियों के लिए विदेशों में भ्रमण या यात्र की स्वतंत्रता, (4) महिलाओं का संपत्ति का अधिकार, और (5) स्त्रियों की शिक्षा। इस कार्यक्रम में से अधिकांश में उन्होंने सफ़लता प्राप्त की। यदि उनको पूर्ण उपलब्धि प्राप्त नहीं हुई तो इसका कारण उनके सामने उस समय की विषमताएं थीं, जिन्हें कभी भूलना नहीं चाहिए। चतुर, कृतसंकल्प तथा पाखंडी बुद्धिजीवी वर्ग, रूढ़िवादिता को बचाने तथा रानाडे को चुनौती देने के लिए आगे आया। वे दृश्य उत्तेजक थे। वे दृश्य उसी प्रकार उत्तेजक थे, जिस प्रकार युद्ध के भयानक घृणित दृश्य होते हैं, और यह एक युद्ध था। जिस समय इस देश में समाज सुधार पर विवाद चल रहा था, उस समय की भावना व जोश को याद नहीं किया जा सकता। उस समय समाज सुधारकों के विरुद्ध रूढ़िवादी लोगों द्वारा जो युक्तियां प्रयोग में लाई गईं, उनकी जो निंदा की गई, उनको जो गालियां दी गईं, उनका शिष्टाचार के नाते यहां पर उल्लेख करना संभव नहीं। सहमति की आयु संबंधी विधेयक का विरोध करके रूढ़िवादिता का जिन लोगों ने समर्थन किया, उनके आचरण समझ पाना असंभव है। यह कार्य उन्होंने उस अधोगति व अपकर्ष के गर्व को महसूस किए बिना किया, जिसमें लोगों के तथाकथित नेता गिर गए थे। विधेयक का उद्देश्य ऐसे पति को दंड देना था, जो अपनी ऐसी पत्नी के साथ जिसकी आयु 12 वर्ष की नहीं हुई हों, संभोग करेगा। क्या कोई समझदार व्यक्ति, क्या कोई लज्जालु व्यक्ति इतने सीधे-सादे विधेयक का विरोध कर सकता था? परंतु इसका विरोध किया गया और रानाडे को उन्मादी रूढ़िवादिता के ताप को सहन करना पड़ा। यह मानकर कि रानाडे की उपलब्धियां कम थीं, कौन व्यक्ति और अधिक उपलब्ध करने के लिए उनकी असफ़लता पर गर्व कर सकता था या विजयोल्लास मना सकता था? विजयोल्लास मनाने या जय-जयकार करने का कोई कारण नहीं था समाज सुधार का ”रास बिल्कुल स्वाभाविक था। समाज सुधार की निंदा की कोई सीमा नहीं थी। राजनीतिक सत्ता की आसक्ति अत्यधिक मोहक थी। इसका परिणाम यह हुआ कि समाज सुधारकों की संख्या घटती गई। कुछ समय के बाद समाज सुधार का मंच छोड़ दिया गया और लोग भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में जमा हो गए। सत्ता लोलुपों ने समाज सुधारकों पर विजय प्राप्त कर ली। मुझे यहीन है कि अब कोई भी व्यक्ति उनकी उस विजय को गर्व की गीत नहीं मानेगा। यह वास्तव में निश्चय ही दुख की बात थी। रानाडे को भले ही पूर्णतया विजय न मिली हो, परंतु उनका पक्ष गलत नहीं था ओर निश्चय ही वह कभी भी गलत के पक्ष में नहीं थे, जिस प्रकार कि उनके कुछ विरोधी थे।