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अध्याय – 6 – रानाडे, गांधी और जिन्ना

तथापि उनके सबसे बड़े विरोधी राजनीतिक वर्ग के बुद्धिजीवी थे। इन राजनीतिक लोगों ने एक नई अभिधारणा विकसित की। उस अभिधारणा के अनुसार राजनीतिक सुधार को सामाजिक सुधार पर अग्रता प्रदान करना था। इस अभिधारणा पर मंचों पर तर्क प्रस्तुत किए गए और इसका समर्थन बंबई उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति तैलंग जैसे प्रसिद्ध लोगों ने किया। वह एक कुशाग्र बुद्धि वकील थे। उन्होंने उत्कृष्ट कौशल से यह कार्य किया। इस अभिधारणा ने लोगों का ध्यान आकर्षित किया। समाज सुधार आंदोलन के मार्ग में बाधा डालने वाले यदि किसी एक कारण को उत्तरदायी ठहराया जाए तो यह राजनीतिक सुधार की इस मांग को ठहराया जा सकता है। इस अवधारणा का समर्थन नहीं किया जा सकता और मुझे इस बात में कोई संदेह नहीं है कि रानाडे के विरोधी गलत थे और उन्होंने इसके अनुसार काम करके देश का हित नहीं किया। जिस आधार पर न्यायमूर्ति तेलंग ने राजनेताओं की अभिधारणा का समर्थन किया था, वह वास्तव में तर्कसंगत था। परंतु वह इस बात को पूर्णतया भूल गए कि तर्क विवेक नहीं होता और साहस तर्क नहीं होता। उन्हें ‘सामाजिक‘ तथा ‘राजनीतिक‘ के बीच परस्पर संबंध की वह सही समझ नहीं थी, जो इस विषय में रानाडे को थी। आइए, हम इस अभिधारणा के कारणों की जांच करें। जो तर्क दिए गए थे, वे बहुत प्रभावशाली नहीं थे। परंतु मैं उन सबसे प्रभावशाली तर्कों का सामना करने के लिए तैयार हूं, जो दिए जा सकते थे। फि़र भी यह अभिधारणा टिक नहीं पाएगी। मुझे जो बातें सबसे अधिक प्रभावशाली प्रतीत होती हैं, वे हैं: सर्वप्रथम, यह कहा जा सकता है कि हम पहले राजनीतिक शक्ति चाहते हैं, क्योंकि हम लोगों के अधिकारों की रक्षा करना चाहते हैं। यह उत्तर सरकार के एक बहुत ही साधारण सिद्धांत की उपज है, जिसका प्रतिपादन अमरीकी राजनेता जफ़ेरसन ने किया था। उनके मतानुसार राजनीति राज्य द्वारा शासन का केवल एक कार्य है, जिससे कि लोगों के अधिकारों को बिना किसी बाधा के बनाए रखा जा सके। मान लीजिए कि यह सिद्धांत ठोस है। प्रश्न यह है कि यदि कोई अधिकार है ही नहीं तो राज्य शासन किस पर करेगा?

शासन के पक्ष को सारभाग गंभीरता प्रदान करने के लिए अधिकार तो होने ही चाहिए। प्रत्यक्ष है कि यह अभिधारणा कि राजनीतिक सुधार सामाजिक सुधार से पहले होना चाहिए तब तक एक निरर्थक प्रस्ताव रहता है, जब तक कि विचार यह हो कि सरकार का काम उन लोगों की रक्षा करना होता है, जिनके पास निहित अधिकार होते हैं और उनको दंड देना होता है, जिसके पास कुछ नहीं होता। दूसरा आधार जिस पर इस अभिधारणा के समर्थन में जोर दिया जा सकता है, वह है कि वे राजनीकि शक्ति प्राप्त करना चाहते हैं। वे प्रत्येक व्यक्ति को कानून द्वारा कुछ मूल अधिकार देना चाहते हैं। और ये तभी दिए जा सकते हैं, जब पहले राजनीतिक शक्ति प्राप्त कर ली जाए। यह बात निःसंदेह ऊपर से बहुत युक्तिपूर्ण लगती है। परंतु क्या इसमें कोई सार है? मूल अधिकारों का विचार अमरीकी संविधान में तथा क्रांतिकारी फ्रांस द्वारा निर्मित संविधान में उन्हें अधिनियमित करने के समय से सुविदित हो गया है। प्रत्येक व्यक्ति को मूल अधिकार प्रदान करने का विचार निःसंदेह बहुत ही प्रशंसनीय है। प्रश्न यह है कि उनको कारगर किस प्रकार बनाया जाए? प्रचलित मत यह है कि जब अधिकारों का विधि में अधिनियमन हो जाता है तो वे सुरक्षित हो जाते हैं। यह फि़र एक अनुचित मान्यता है। अनुभव तो यह सिद्ध करता है कि अधिकारों की रक्षा कानून के द्वारा नहीं, बल्कि समाज की सामाजिक तथा नैतिक चेतना द्वारा की जाती है। यदि सामाजिक चेतना ऐसी है कि वह उन अधिकारों को मान्यता देने के लिए तैयार है जिनका अधिनियमन कानून करता है, तो अधिकार सुरक्षित रहेंगे। परंतु यदि मूल अधिकारों का समुदाय द्वारा विरोध किया जाता है तो कोई कानून, कोई संसद, कोई न्यायपालिका, वास्तविक अर्थ में उनकी गारंटी नहीं दे सकती। अमरीका में नीग्रो लोगों के लिए, जर्मनी में यहूदियों के लिए, भारत में अछूतों के लिए मूल अधिकारों की क्या उपयोगिता है? बर्क ने कहा कि भीड़ व बहुसंख्या को दंड देने के लिए कोई तरीका नहीं मिलता। कानून एक एकाकी उदंड अपराधी को दंड दे सकता है। यह उन लोगों के समूचे निकाय के विरुद्ध कभी कार्यवाही नहीं कर सकता, जो उसका विरोध करने का निश्चय कर लेते हैं।

कोलरिज के शब्दों में, ‘‘सामाजिक चेतना आत्मा का वह शांत एवं सच्चरित्र विधायक है, जिसके प्रभाव में शेष सभी शक्तियां आपस में टकराएंगी। वही समस्त मूल अथवा अमूल अधिकारों की एकमात्र रक्षिका है।‘‘

राजनीतिक लोगों का तीसरा तर्क स्व-शासन के अधिकारों पर आधारित हो सकता है। स्वशासन अच्छे शासन से बेहतर होता है। यह एक सुविदित नारा है। इसे एक नारे से अधिक महत्व नहीं दिया जा सकता और सभी इस बात से आश्वस्त होना चाहेंगे कि स्वशासन भी एक अच्छा शासन होगा। इसमें संदेह नहीं कि राजनीतिक लोग उत्तम शासन चाहते हैं और उनका उद्देश्य लोकतंत्रत्मक शासन की स्थापना करना है। परंतु उन्होंने कभी भी शांत मन से इस बात पर विचार नहीं किया कि क्या लोकतंत्रत्मक शासन संभव है। उनका दावा अनेक भ्रांतियों पर आधारित है। लोकतंत्रत्मक शासन के लिए लोकतंत्रत्मक समाज का होना बहुत आवश्यक होता है। प्रजातंत्र के औपचारिक ढांचे का कोई महत्व नहीं है और यदि सामाजिक लोकतंत्र नहीं है तो वह वास्तव में अनुपयुक्त होगा। राजनीतिक लोगों ने यह कभी भी महसूस नहीं किया कि लोकतंत्र शासन तंत्र नहीं है। यह वास्तव में समाज तंत्र है। लोकतंत्रत्मक समाज के लिए यह आवश्यक नहीं है कि उसमें एकता, सामुदायिक उद्देश्य, लोकहित के प्रति निष्ठा तथा पारस्परिक सहानुभूति जैसी विशेषताएं हों। परंतु उसके लिए दो बातें तो सुस्पष्ट रूप में आवश्यक होती हैं। पहली है – मनोवृत्ति, अपने साथियों के प्रति समानता तथा आदर का भाव। दूसरी है – एक सामाजिक संगठन जो कठोर सामाजिक बंधनों से मुक्त हो। लोकतंत्र की अलगाव-थलगाव तथा एकांतिकता के साथ संगति नहीं होती। उनके फ़लस्वरूप सुविधा प्राप्त एवं सुविधा विहीन लोगों के बीच दरार पैदा होती है। दुर्भाग्यवश रानाडे के विरोधियों ने इस तथ्य की सच्चाई को कभी भी महसूस नहीं किया।

इसकी परख के लिए कोई भी कसौटी अपनाई जा सकती है और उससे यह पता चलेगा कि इस विवाद में रानाडे ने जो रुख और कार्ययोजना अपनाई, भले ही वे राजनीतिक सुधार की पूर्व आवश्यकताएं नहीं थीं, पर वे सही तथा बुनियादी थीं। रानाडे ने यह तर्क दिया कि हिन्दू समाज में ऐसे कोई अधिकार नहीं है, जिन्हें मनुष्य नैतिक दृष्टि से मान्यता दे सके। उसमें मुट्ठी भर लोगों के लिए विशेष सुविधाएं और विशाल बहुसंख्य जनसमूह के लिए घोर असुविधाएं थीं। रानाडे ने अधिकार-सृजन के लिए संघर्ष किया। रानाडे हिन्दू समाज की रूग्ण तथा मृतप्राय चेतना में जीवन का संचार करना चाहते थे। रानाडे एक ऐसे सामाजिक लोकतंत्र का निर्माण करना चाहते थे, जिसके बिना किसी प्रकार की निश्चित तथा स्थायी राजनीति हो ही नहीं सकती। संघर्ष दो परस्पर विरोधी दृष्टिकोणों के बीच था और वह इस प्रश्न पर केंद्रित था कि एक राष्ट्र के जीवित रहने के लिए राजनीतिक स्वतंत्रता तथा सशक्त नैतिक ताने-बाने में से कौन सा अधिक महत्वपूर्ण है। रानाडे का विचार था कि नैतिक बल राजनीतिक स्वतंत्रता से अधिक महत्वपूर्ण है। यही विचार महान इतिहासकार लेकी का भी था। वह इतिहास का सावधानीपूर्वक तथा तुलनात्मक अध्ययन करके इस निष्कर्ष पर पहुंच थे:

‘‘एक राष्ट्र की शक्ति तथा समृद्धि की नींव के आधार हैं: विशु) घरेलू जीवन, व्यापार में ईमानदारी, नैतिकता तथा लोकहित के उच्च स्तर, सादा जीवन, साहस, सच्चाई तथा निर्णय में तर्क और उदारता का निश्चित पुट जिसमें चरित्र और बौद्धिक प्रतिभा का समान योगदान हो। यदि आप किसी राष्ट्र के भविष्य के लिए एक बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय करते हैं तो ध्यान से यह देखिए कि गुणों का उत्कर्ष हो रहा है या अपकर्ष। ध्यान दीजिए कि सार्वजनिक जीवन में किन गुणों का सबसे अधिक महत्व होता है। क्या चरित्र का महत्व बढ़ रहा है। या घट रहा है? जो लोग राष्ट्र में सर्वोच्च पद पर आसीन हैं, क्या वे उन लोगों में से हैं, जिनका नाम निजी जीवन में पार्टी का लिहाज किए बिना सक्षम पारखी लोग सच्ची श्रद्धा के साथ लेते हैं। क्या वे सच्चे विश्वास वाले, सुसंगत छवि वाले तथा निर्विवाद सत्यनिष्ठा वाले व्यक्ति हैं? केवल इस धारा को देखकर ही आप किसी राष्ट्र की जन्मपत्री तैयार कर सकते हैं।‘‘

रानाडे न केवल बुद्धिमान थे, बल्कि तर्कनिष्ठ भी थे, उन्होंने अपने विरोधियों को चेतावनी दी कि वे राजनीति में आमूल परिवर्तनवादियों तथा समाज में अति अनुदारवादियों की भूमिका अदा न करें। उन्होंने सुस्पष्ट तथा सही शब्दों में चेतावनी दी:

‘‘आप आधे-अधूरे उदार नहीं हो सकते। आप राजनीति में उदार तथा धर्म में रूढिवादी नहीं हो सकते। दिल व दिमाग एक साथ रहने चाहिएं। आप ये दोनों काम एक साथ नहीं कर सकते कि आप अपनी बुद्धि का परिष्कार कर लें, मन को पुष्ट कर लें, अपने राजनीतिक अधिकारों तथा विशेषाधिकारों का क्षेत्र भी बढ़ा लें, और साथ ही साथ अपने दिलों के द्वार बंद करके उसे संकीर्ण भी बना लें। यह एक निरर्थक स्वप्न है कि हम लोगों से उस समय यह आशा करें कि वे अपने निजी अंधविश्वास तथा सामाजिक दोषों के बंधन में बंधे रहें जब कि वे अपने शासकों से अधिकार तथा विशेषाधिकार प्राप्त करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। शीघ्र ही इन व्यर्थ स्वप्न दुष्टाओं को अपने स्वप्नों के ध्वस्त होने का पता चल जाएगा।‘‘

अनुभव ने दर्शा दिया है कि रानाडे के यह शब्द सत्य सिद्ध हुए हैं, यहां तक कि ये पैगम्बरी भविष्यवाणी रहे हैं। जो इससे इंकार करते हैं, वे इस बात पर विचार करें: हम आज राजनीति में कहा हैं और हम जहां हैं, वहां क्यों हैं? राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुए अब 50 वर्ष हो चुके हैं। इसका नेतृत्व अनेक हाथों से गुजरा है। मैं यह नहीं कहता कि वह समझदारों से नासमझों या यथार्थवादियों से आदर्शवादियों के हाथों में गया है, परंतु यह नरमपंथियों से उग्र सुधारवादियों के हाथों में चला गया है। हमारी राजनीतिक यात्र के 50 वर्ष के अंत में आज देश कहां पर खड़ा है? इस गतिरोध का क्या कारण है? उत्तर सीधा सा है, गतिरोध का कारण है सामुदायिक समझौते का अभाव। पूछिए कि राजनीतिक समझौते के लिए सामुदायिक समझौता क्यों आवश्यक है और रानाडे के दृष्टिकोण के बुनियादी महत्व को महसूस कीजिए, इस प्रश्न का उत्तर गलत सामाजिक व्यवस्था में मिलेगा। वह लोकतंत्र का घोर विरोध करती है, वह वर्गों की प्रबल समर्थक है, वह घोर जन-विरोधी है, वह वर्ग उच्चता तथा सांप्रदायिकता से भरपूर है। यदि राजनीतिक लोकतंत्र को उसका आधार बनाया जाएगा तो वह पूर्ण विडंबना हो जाएगी। यही कारण है कि उच्च जातियों के हिन्दुओं के अलावा कोई भी बिना गंभीर समायोजन के इसे राजनीतिक लोकतंत्र का मुद्दा बनाने के लिए सहमत नहीं होगा। कुछ लोग यह तर्क देकर संतुष्टि प्राप्त कर सकते हैं कि गतिरोध ब्रिटिश सरकार ने उत्पन्न किया है। लोग ऐसे विचारों को ग्रहण करना पसंद करते हैं, जो उनको संतोष प्रदान करते हैं और दूसरों पर जिम्मेदारी डाल देते हैं। यह पलायनवाद की मनोवृत्ति है, परंतु इससे इस तथ्य को नहीं बदला जा सकता कि यह सामाजिक व्यवस्था का दोष है। इसी ने सांप्रदायिक समस्या को जन्म दिया है और इसी ने भारत के सामने राजनीतिक शक्ति को प्राप्त करने में बाधा उत्पन्न की है।