एक सुधारक के रूप में उनका मार्ग सरल व निष्कंटक नहीं था। वह अनेक दिशाओं से अवरुद्ध था। जिन लोगों को वह सुधारना चाहते थे, उनकी भावनाएं प्राचीन अतीत में गहरी धंसी हुई थीं। उनका विश्वास था कि उनके पूर्वज सबसे अधिक बुद्धिमान तथा सबसे कुलीन व उत्कृष्ट व्यक्ति थे और उन्होंने सर्वोच्च आदर्श समाज व्यवस्था की स्थापना की थी। हिन्दू समाज की जो लज्जास्पद तथा त्रुटिपूर्ण बातें रानाडे को महसूस हुई, वे उनके लिए धर्म की सबसे पवित्र निषेधाज्ञाएं थीं। जनसाधारण की यह मनोवृत्ति थी। बुद्धिजीवी दो वर्गों में बंटे हुए थें एक वर्ग वह था जो रूढ़िवादी विश्वास वाला था, परंतु उसका दृष्टिकोण राजनीतिक नहीं था और एक वर्ग वह था जो अपने विचारों से आधुनिक था, परंतु उसके लक्ष्य तथा उद्देश्य मूलतः राजनीतिक थे। पहले वर्ग का नेतृत्व श्री चितलेकर कर रहे थे और दूसरे का श्री तिलक। वे दोनों रानाडे के विरुद्ध एकजुट हो गए और उन्होंने उनके मार्ग में यथासंभव अधिक से अधिक कठिनाइयां उपस्थित कीं। उन्होंने केवल समाज सुधार के ध्येय को ही सबसे ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचाया, बल्कि जैसा कि अनुभव से पता चलता है, उन्होंने भारत में राजनीतिक सुधार के ध्येय को भी सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है। राजनीति से विमुख या रूढ़िवादी विचारधारा के लोग हेगलवादी दृष्टि में विश्वास रखते थे। यह मेरे लिए एक पहेली है, अर्थात आदर्श को प्राप्त करना तथा यथार्थ को आदर्श बनाना। इसमें यह बात एकदम गलत है। हिन्दू धार्मिक तथा सामाजिक व्यवस्था ऐसी है कि आप इसके आदर्श स्वरूप को यथार्थता प्रदान करने के लिए आगे नहीं बढ़ सकते, क्योंकि आदर्श बुरा होता है। न ही आप यथार्थ को आदर्श की स्थिति पर पहुंचाने का प्रयास कर सकते हैं, क्योंकि यथार्थ अर्थात् वर्तमान परिस्थिति बद से भी बदतर है। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है। हिन्दू धार्मिक व्यवस्था को लीजिए या हिन्दू सामाजिक व्यवस्था को लीजिए और इसकी सामाजिक उपयोगिता तथा सामाजिक न्याय की दृष्टि से जांच कीजिए। यह कहा जाता है कि धर्म उस समय तक अच्छा होता है, जब वह टकसाल से ताजा-ताजा निकलता है। परंतु हिन्दू धर्म तो प्रारंभ से ही एक खोटा सिक्का जैसा रहा है। समाज के हिन्दू आदर्श ने जैसा कि हिन्दू धर्म द्वारा निर्धारित किया गया है, हिन्दू समाज पर सबसे अधिक भ्रष्ट करने वाले तथा विकृत करने वाले प्रभाव के रूप में कार्य किया है। उसका स्वरूप तथा तत्व नीत्शेवादी है। नीत्शे के जन्म लेने से बहुत पहले ही मनु ने उस सिद्धांत की घोषणा कर दी थी, जिसका प्रचार करने का नीत्शे ने प्रयास किया। यह एक ऐसा धर्म है, जिसका अभीष्ट स्वतंत्रता, समानता तथा भ्रातृत्व की स्थापना करना नहीं है। यह एक सिद्धांत है, जो शेष हिन्दू समाज द्वारा अतिमानव ब्राह्मण की पूजा व उपासना का पोषण करता है। यह इस बात को प्रस्तुत करता है कि अतिमानव तथा एकमात्र उसका वर्ग ही जीवित रहने तथा शासन करने के लिए उत्पन्न हुए हैं। दूसरे लोग जन्म उनकी सेवा करने के लिए ही होता है, अन्य किसी कार्य के लिए नहीं। उनका जीवन अपना जीवन नहीं होता और अपने स्वयं के व्यक्तित्व को विकसित करने का उनको कोई अधिकार नहीं होता। यह हिन्दू धर्म का सिद्धांत रहा है। हिन्दू दर्शन, चाहे वह वेदांत हो या सांख्य, न्याय और वैशेषिक, हिन्दू धर्म को किसी रूप में प्रभावित किए बिना अपनी धुरी पर घूमता रहा है। इस सिद्धांत को चुनौती देने का साहस उसमें कभी नहीं हुआ। यह हिन्दू दर्शन को प्रत्येक वस्तु ब्रह्ममय है, केवल बुद्धि का ही खिलवाड़ रहा। यह कभी भी सामाजिक दर्शन नहीं हुआ। हिन्दू दार्शनिकों ने अपने दर्शन तथा अपने मनु, दोनों को अलग-अलग हाथों में रखा, दाएं को यह पता नहीं कि बाएं के पास क्या था। हिन्दू को उनके परस्पर विरोध से कभी कष्ट नहीं होता। जहां तक उनकी समाजव्यवस्था का संबंध है, क्या उससे अधिक भ्रष्ट और कुछ हो सकता है? जातिप्रथा चातुर्वर्ण्य का जो कि हिन्दू का आदर्श है, एक भ्रष्ट रूप है। कोई व्यक्ति जो जन्मजात जड़बुद्धि या मूर्ख नहीं है, चातुर्वर्ण्य को समाज का आदर्श रूप कैसे स्वीकार कर सकता है? व्यक्तिगत रूप से तथा सामाजिक रूप से यह एक मूर्खता या अपराध है। केवल एक वर्ग को ही शिक्षा तथा ज्ञान प्राप्त करने का अधिकारी होना, केवल एक वर्ग को ही व्यापार करने का अधिकारी होना, केवल एक वर्ग को ही सेवा करने के लिए होना, व्यक्ति के लिए इसके परिणाम स्पष्ट व प्रत्यक्ष हैं। आपको ऐसा विद्वान व्यक्ति कहां मिल सकता है, जिसके पास आजीविका का कोई साधन न हो और वह अपनी शिक्षा को विकृत न करे? आपको ऐसा सिपाही कहां मिल सकता है, जिसकी कोई शिक्षा तथा संस्कृति न हो और वह अपने शस्त्रें का उपयोग संरक्षण के लिए करे, विनाश के लिए नहीं? आपको ऐसा व्यापारी कहां मिलेगा, जिसके पास फ़ूटी कौड़ी तक न हो ओर वह ऐसी अर्जनवृत्ति अपना ले, जो घटिया स्तर पर न पहुंचे? आपको ऐसा सेवक कहां मिल सकता है जो न तो शिक्षा प्राप्त करे, न शस्त्र ग्रहण करे और न जीविकोपार्जन के अन्य साधन अपनाए और अपना मनचाहा निर्माता बने। यदि यह व्यक्ति के लिए हानिकारक है तो यह समाज को भी भेध्य तथा नाजुक बना देती है। समाज संरचना को केवल एक अच्छे मौसम के अनुकूल होना ही पर्याप्त नहीं है, उनके तफ़ूान को झेलने की भी शक्ति होनी ही चाहिए। क्या हिन्दू वर्ग व्यवस्था किसी आक्रमण की झंझा को झेल सकती है? जाहिर है कि नहीं झेल सकती। चाहे प्रहार हो या प्रतिरक्षा, समाज को इस योग्य होना ही चाहिए कि वह अपनी शक्तियों का संघटन कर सके। जहां कर्तव्यों तथा दायित्वों का वितरण तथा निर्धारण एकांगी तथा अपरिवर्तनीय हो, वहां संगठन कैसे हो सकता है? नब्बे प्रतिशत हिन्दू-ब्राह्मण, वैश्य तथा शूद्र-हिन्दू सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत शस्त्र धारण नहीं कर सकते थे। यदि देश की सैन्य-संख्या में खतरे के समय वृद्धि नहीं की जा सकती, तो देश की रक्षा किस प्रकार की जा सकती है? जैसा कि प्रायः आरोप लगाया जाता है, बुद्ध ने हिदू समाज को अपने अहिंसा के सिद्धांत द्वारा कमजोर बनाया था। हिन्दू समाज को कमजोर बनाने वाले बुद्ध नहीं, बल्कि चातुर्वर्ण्य का वह ब्राह्मणवादी सिद्धांत है जो न केवल हिन्दू, अपितु हिन्दू समाज के अपकर्ष के लिए भी उत्तरदायी है। आपमें से कुछ लोग मेरी उस बात को बुरा मानेंगे जो मैंने हिन्दू समाज पर हिन्दू सामाजिक-धार्मिक आदर्श के भ्रष्टकारी प्रभाव के विषय में कही है। परंतु सच्चाई क्या है? क्या इस आरोप का खंडन किया जा सकता है? क्या विश्व में ऐसा कोई समाज है, जहां ऐसे लोग रहते हों, जो एकदम अलग-थलग रहते हों और जिनकी परछाई पड़ना और जिन्हें देखना पाप हो। क्या कोई ऐसा समाज है जिसमें आपराधिक जनजातियां रहती हों? क्या कोई ऐसा समाज है, जिसमें नंग-धड़ंग आदिवासी एवं बनवासी हों? वे गिनती में कितने हैं? क्या वे सैकंड़ों की संख्या में है? क्या हजारों की संख्या में हैं? मेरी कामना है कि उनकी संख्या नगण्य हो। दुख की बात यह है कि उनकी संख्या लाखों में है? लाखों अछूत हैं, लाखों जरायम पेशा जनजातियां हैं, लाखों आदिम जनजातियां हैं। घोर आश्चर्य! हिन्दू सभ्यता, सभ्यता है या उसके नाम पर कलंक है? यह तो आदर्श का हाल है। अब आप उन परिस्थितियों की ओर ध्यान दीजिए, जो उस समय विद्यमान थीं, जब रानाडे मंच पर उतरे थे। जिस अधोगति की अवस्था में वे उस समय पहुंच गए थे, जब अंग्रेज मंच पर आए और रानाडे जैसे सुधारकों को उनका सामना करना पड़ा था, उस अवस्था को अब महसूस करना असंभव है। मैं बुद्धिजीवी वर्ग की दशा से आरंभ करता हूं। सभ्यता का पालनपोषण तथा मार्गदर्शन उसके बुद्धिजीवी वर्ग पर ब्राह्मणों द्वारा प्रदत्त नेतृत्व पर निर्भर होना ही चाहिए। प्राचीन हिन्दू कानून के अधीन ब्राह्मण को पुरोहित वर्ग का लाभ प्राप्त था और ब्राह्मण चाहे हत्या का दोषी हो, उसे फ़ांसी की सजा नहीं दी जाती थी और ईस्ट इंडिया कंपनी उसे यह विशेषाधिकार 1817 तक देती रही। इसमें संदेह नहीं, क्योंकि उस पर श्रेष्ठता का ठप्पा लगा था। पर क्या उसमें कोई श्रेष्ठता शेष रह गई थी? उसके व्यवसाय की समूची श्रेष्ठता लुप्त हो चुकी थी। वह समाज के लिए दीमक बन चुका था। ब्राह्मण ने योजनाबद्ध तरीके से समाज को खोखला किया और धर्म का अनुचित लाभ उठाया। जिन दिनों पुराणों तथा शास्त्रें की रचना ब्राह्मण ने की, वे उन धूर्तताओं की अनमोल खोज है जिनका दुरुपयोग ब्राह्मणों ने निर्धन, अशिक्षित तथा अंधविश्वासी हिन्दू जन-साधारण को उल्लू बनाने, बहकाने तथा ठगने के लिए किया। इस भाषण में उनके संबंध में हवाला देना असंभव है। मैं यहां पर केवल उन बाध्यकारी उपायों को उल्लेख कर सकता हूं, जिन्हें ब्राह्मणों ने अपने अधिकारों तथा विशेषाधिकारों को भुनाने के लिए उन पर औचित्य तथा पवित्रता का ठप्पा लगाया और हिन्दुओं का अहित किया। जो लोग उनकी जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं, वे 1795 के रेगुलेशन द्धविनिमय) XXI की प्रस्तावना को पढ़ें। उसके अनुसार जब कभी भी एक ब्राह्मण कोई भी ऐसी वस्तु प्राप्त करना चाहता था जिसे कि वह अपने शिकार से उसकी इच्छा से प्राप्त नहीं कर सकता था तो वह विभिन्न प्रकार के दबाव डालने वाले उपायों का सहारा लेता था। वह अपने शरीर को चाकुओं तथा उस्तरों से चीरता था, या किसी विष को निगलने की धमकी देता था। ये उसकी सामान्य चालें होती थी, जिनको वह अपनी स्वार्थ-पूति के लिए चलाता था। हिन्दुओं पर दबाव डालकर उन्हें मजबूर करने के लिए ब्राह्मणों द्वारा कुछ अन्य तरीके भी अपनाए जाते थे। वे जितने लज्जाजनक थे, उतने ही विलक्षण भी थे। एक सामान्य चलन यह था कि वह अपने शिकार के घर के सामने कूढ़ खड़ा कर देता था। कूढ़ एक गोल अहाता होता था, जिसमें एक लकड़ी का ढेर लगा दिया जाता था। अहाते के अंदर एक बुढ़िया को बैठा दिया जाता था, जो उसके उद्देश्य की पूर्ति नहीं करने पर कूढ़ में जलने के लिए तैयार रहती थी। इस प्रकार का दूसरा उपाय यह था कि वह उसकी महिलाओं तथा बच्चों को अपने शिकार की नजरों के सामने बैठा देता था और उनके सिर काटने की धमकी देता था। तीसरी युक्ति धरने की थी। शिकार के द्वार पर अनशन किया जाता था। यह तो कुछ भी नहीं। ब्राह्मणों ने गैर-ब्राह्मणों की महिलाओं का कौमार्य भंग करने के अधिकार के लिए दावा करना आरंभ कर दिया था। इस चलन का प्रचलन कालीकट के जेमोरिन के परिवार में तथा वैष्णवों के वल्लभचारी संप्रदाय में था। ब्राह्मण अधोगति के रसातल में धंस चुका था। जैसा बाइबल कहती है, ‘‘यदि लवण ने अपनी लवणता खो दी हो तो किस तत्व से उसे लवणता प्रदान की जाए।‘‘ इसमें संदेह नहीं कि हिन्दू समाज ने अपने नैतिक बंधनों को ढीला करके उन्हें एक खतरनाक कगार पर पहुंचा दिया था। इस नैतिक अधोगति को रोकने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी को 1819 में एक विनिमय (1819 का VII) पारित करना पड़ा। इस अधिनियम की प्रस्तावना में कहा गया है कि महिलाओं को बड़े पैमाने पर काम पर लगाया जाता था ताकि वे वेश्यावृति के लिए पत्नियों तथा बच्चियों को प्रलोभन देकर ले जाएं। यह एक सामान्य प्रथा थी। पति तथा पिता अपने परिवारों को तज देते थे। लोगों में विवेक था ही नहीं और उसके अभाव में सामाजिक पापों व अपराधों के विरुद्ध नैतिक रोष की आशा करना व्यर्थ ही था। वास्तव में, ब्राह्मण हर प्रकार के दोष, अपराध या पाप का समर्थन करने में लगे हुए थे। इसका एक सहज कारण यह था कि वह तो उनके जीवन की बैशाख थी। उन्होंने अस्पृश्यता का समर्थन किया। अस्पृश्यता ने लाखों लोगों को दासता के नरक में धकेल दिया। उन्होंने जातिवाद का समर्थन किया। उन्होंने बाल-विवाह और बाध्यकारी वैधव्य का समर्थन किया। वर्ण-व्यवस्था के ये दो घोर कलंक हैं। उन्होंने सती प्रथा का समर्थन किया। उन्होंने बहुविवाह के नियम वाली क्रमिक असमानता की समाज व्यवस्था का समर्थन किया। उसके कारण राजपूतों ने अपनी हजारों पुत्रियों का गला जन्म लेते ही घोंट दिया। घोर लज्जाजनक! घोर पाप! क्या ऐसा समाज सभ्य राष्ट्रों को अपना मुंह दिखा सकता है? क्या ऐसा समाज अपने अस्तित्व के बने रहने की आशा कर सकता है? ऐसे प्रश्न उठाए रानाडे ने। उनका निष्कर्ष था कि यदि जीवित रहना है तो कठोर सामाजिक सुधार करने होंगे।