महापुरुष किसे कहा जा सकता है? यदि पूछा जाए कि क्या सिकंदर, अत्तिला सीजर तथा तैमूरलंग जैसे शूरवीर योद्धा हैं, तो प्रश्न का उत्तर देना कठिन नहीं है। वीर योद्धा युग निर्माता होते हैं और व्यापक परिवर्तन लाते हैं। वे अपनी विजय के प्रचंडनाद से अपने समकालीन व्यक्तियों को स्तंभित और चकित कर देते हैं। वे महान हो जाते हैं। वे इसकी प्रतीक्षा नहीं करते कि लोग उन्हें महान कहें। जैसे हिरनों के बीच में शेर होता है, वैसे ही वे मनुष्यों के बीच होते हैं। परंतु यह बात भी उतनी ही सच है कि मानव-जाति के इतिहास पर उनका स्थायी प्रभाव बहुत ही कम होता है। उनकी विजय संकुचित हो जाती है और यहां तक कि नेपोलियन जैसे महान सेनानायक को भी अपनी समूची विजय सफ़लताओं के बाद फ्रांस को मूल से भी लघु आकार में देखना और छोड़ना पड़ा। जरूरत पड़ने पर जब उन पर कुछ दूरी से दृष्टिपात किया जाता है तो विश्व के समूचे कार्य-व्यापार में वे केवल सामयिक महत्व की दीख पड़ती हैं और जिस समाज में घटित होती हैं, उस पर कोई स्थायी प्रभाव नहीं डालतीं। उनके जीवन तथा नैतिक आचरण का वृत्त रोचक हो सकता है, परंतु वे समाज को प्रभावित नहीं करते और समूचे समाज के स्वरूप केा बदलने के लिए वे कोई प्रभाव नहीं छोड़ते तथा कोई परिवर्तन नहीं लाते।
जब प्रश्न किसी ऐसे व्यक्ति के विषय में पूछा जाता है जो सेनाध्यक्ष नहीं है तो उत्तर देना कठिन हो जाता है। क्योंकि उस समय यह प्रश्न जांच व कसौटी का प्रश्न हो जाता है और अलग लाेगों की अलग-अलग जांच व कसौटी होती है।
नायक-पूजा के प्रबल पक्षधर कार्लाइल की अपनी एक निजी कसौटी व जांच थी। उन्होंने निम्नलिखित शब्दों में उसका उल्लेख किया है:
‘‘लेकिन विशेष रूप से महापुरुष के बारे में मैं अति आग्रह से यह कहने का साहस करूंगा कि इस पर तो विश्वास किया ही नहीं जा सकता कि वह सत्यनिष्ठ के अलावा वह कुछ और भी हो सकता है ……… कोई व्यक्ति तभी समर्थ होगा, जब, वह सर्वप्रथम सत्यनिष्ठ हो, उसे मैं निष्ठावान व्यक्ति कहूंगा निष्ठा कैसी गहन, अति खरी निष्ठा। सभी वीर-गुणी व्यक्तियों का सर्वोपरि प्रधान लक्षण है।‘‘
कार्लाइल ने निःसंदेह सच्चाई की अपनी कसौटी की परिभाषा विशेष रूप से स्पष्ट शब्दों में दी है और ऐसा करने में उसने अपने पाठकों को इस बात की भी चेतावनी दी है कि इसकी व्याख्या करने में सच्चाई के विषय में उनके विचार हैं:
‘‘वह सच्चाई नहीं, जो स्वयं को सच्चा कहती है: ओह, बिल्कुल नहीं! वह वास्तव में अति तुच्छ बात है; एक छिछली, आत्म-श्लाघी, स्व-आरोपित सच्चाई जो बहुधा मुख्यतः अभिमान एवं अहंकार पूर्ण होती है। महापुरुष की सच्चाई इस प्रकार की होती है कि उसके विषय में वह कुछ बोल ही नहीं सकता, उसका उसे बोध ही नहीं होता। इसके विपरीत मेरा विचार है कि वह पाखंड से अधिक सचेत रहता है। महापुरुष तो कभी भी अपने को ईमानदार कहकर आत्म-प्रशंसा नहीं करता, वह उससे कोसों दूर रहता है; वह शायद स्वयं से भी यह नहीं पूछता कि क्या वह ऐसा है: बल्कि मैं तो यह करुंगा कि उसकी सच्चाई तो स्वयं उस पर भी निर्भर नहीं करती, वह सच्चाई का पल्ला छोड़ ही नहीं सकता।‘‘
लार्ड रोजबरी ने एक और कसौटी नेपोलियन के संबंध में प्रस्तुत की। नेपोलियन जितना महान जनरल था, उतना ही समान प्रशासक भी था। क्या नेपोलियन महान था? इस प्रश्न का उत्तर देते समय रोजवरी ने निम्नलिखित भाषा का प्रयोग किया:
‘‘यदि ‘महान‘ से अभिप्राय नैतिक और प्रतिभा संबंधी गुणों के समन्वय से है तो वह निश्चित रूप से महान नहीं है। परंतु वह असाधारण तथा सर्वोच्च होने के अर्थ में महान है। इसमें हमें कोई संदेह नहीं हो सकता। यदि महानता का अर्थ प्राकृतिक शक्ति, प्रधानता, मानवता से परे किसी मानवीयता से है, तब नेपोलियन निश्चय ही महान है। उस वर्णनातीत चिंगारी के अलावा जिसे हम प्रतिभा कहते हैं, वह बुद्धि तथा शक्ति के ऐसे समन्वय का प्रतीक है, जिसकी शायद किसी भी न तो बराबरी की गई और न ही कभी उसे लांघा गया।‘‘
एक तीसरी कसौटी है, जिसे दार्शनिकों ने बताया है या यदि और ठीक-ठाक कहें तो इसे लोगों ने बताया है, जो मानवीय कार्यव्यापार के दैवी-निर्देश में विश्वास करते हैं। महापुरुष कौन होता है, उसके विषय में उनकी अवधारणा अलग है। उनके विचारों को संक्षेप में रोजबरी ने इस प्रकार व्यक्त किया है- ‘‘महापुरुष विश्व में एक महान प्राकृतिक या अलौकिक शक्ति के रूप में अवतरित होता है। वह समाज की गंदगी की सफ़ाई करता है तथा उसे सही मार्ग पर ले जाता है। वह शुद्धिकारक तथा संकटमोचक वरदान होता है। वह एक विराट कार्य में लगा होता है, जो अंशतः सकारात्मक तथा मुख्यतः नकारात्मक होता है, परंतु सबका संबंध सामाजिक पुनरुद्वार से होता है।
इनमें से सही व सच्ची कसौटी कौन सी है? मेरे विचार से सभी कसौटियां अपूर्ण हैं, कोई भी पूर्ण नहीं है। सच्चाई तो महापुरुष की कसौटी होनी ही चाहिए। कलेमेन्सो ने एक बार कहा था कि अधिकांश राजनेता दुष्ट व बदमाश होते हैं। राजनेता अनिवार्यतः, महापुरुष नहीं होते और जिन लोगों के अनुभव पर उसने अपना मत कायम किया, वे स्पष्टतः ऐसे लोग हैं, जिनमें सच्चाई का अभाव रहा है। फि़र भी, कोई भी इस बात को स्वीकार नहीं कर सकता कि सच्चाई इसकी प्रमुख या एकमात्र कसौटी ही है, क्योंकि सच्चाई ही काफ़ी नहीं होती। एक महापुरुष में सच्चाई तो होनी चाहिए, क्योंकि समूचे नैतिक गुणों के संगम के बिना कोई व्यक्ति महान नहीं कहला सकता। परंतु एक व्यक्ति को महान बनाने में केवल सच्चाई के अलावा भी कोई गुण होना चाहिए। एक व्यक्ति सच्चा हो सकता है, परंतु फि़र भी वह मूर्ख हो सकता है। एक मुर्ख व्यक्ति एक महान व्यक्ति के ठीक विपरीत होता है। एक व्यक्ति इसलिए महान होता है कि वह समाज को संकट की घड़ी में से उबारने के लिए मार्ग ढूंढ लेता है। परंतु मार्ग को ढूंढ़ने में उसकी सहायता क्या चीज कर सकती है? वह ऐसा केवल प्रतिभा की सहायता से कर सकता है। प्रतिभा प्रकाश है। इसके अलावा और कोई चीज काम नहीं करती। यह बात बिल्कुल स्पष्ट है कि सच्चाई के बिना कोई व्यक्ति महान नहीं हो सकता। क्या एक महान व्यक्ति को बनाने के लिए यह पर्याप्त है? इस अवस्था में मेरे विचार से हमें एक प्रसिद्ध व्यक्ति और एक महान व्यक्ति में अंतर समझना चाहिए। क्योंकि मेरा निश्चय है कि एक महान व्यक्ति एक प्रसिद्ध व्यक्ति से बहुत ही भिन्न होता है। एक व्यक्ति की सच्चाई, ईमानदारी या निष्कपटता तथा प्रतिभा जैसे गुण उसे अपने साथियों की तुलना में प्रसिद्ध व्यक्ति होने के लिए पर्याप्त होते हैं। परंतु वे उसे एक महान व्यक्ति के पद व सम्मान तक पहुंचाने के लिए पर्याप्त नहीं होते। एक महान व्यक्ति में मात्र एक प्रसिद्ध व्यक्ति की अपेक्षा कुछ अधिक होना चाहिए। वह अधिक चीज क्या होनी चाहिए? यहां पर दार्शनिक द्वारा दी गई महान व्यक्ति की परिभाषा का महत्व सामने आता है। एक महान व्यक्ति को सामाजिक उद्देश्य की गतिशीलता से प्रभावित होना चाहिए और उसे समाज के अंकुश तथा अपमार्जक के रूप में काम करना चाहिए। ये वे तत्व हैं, जिनसे एक महान व्यक्ति की एक प्रसिद्ध व्यक्ति से अलग पहचान की जा सकती है और इन्हीं में सर्वोत्तम कार्यों के सम्मान तथा आदर के उसके अधिकार निहित हैं।