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अध्याय – 2 – रानाडे, गांधी और जिन्ना

जैसा कि आप भलीभांति जानते हैं कि रानाडे के कुछ मित्र हैं, जो उनको एक महापुरुष के रूप में चित्रित करने में झिझक नहीं करते और कुछ अन्य लोग ऐसे हैं, जो उसी समान आग्रह से उनको वह स्थान प्रदान नहीं करते। फि़र सच्चाई क्या है? परंतु यह प्रश्न मेरे विचार से एक और प्रश्न पर निर्भर होना ही चाहिए। वह प्रश्न है कि क्या इतिहास महापुरुषों का जीवन-चरित्र होता है। यह प्रश्न प्रासंगिक भी है और महत्वपूर्ण भी। क्योंकि यदि महापुरुष इतिहास के निर्माता नहीं तो कोई कारण नहीं कि हम सिनेमा के सितारों से अधिक ध्यान उनकी ओर दें। इस संबंध में अलग-अलग विचार हैं। कुछ लोग ऐसे हैं जो इस बात पर जोर देते हैं कि एक व्यक्ति कितना भी महान हो, समय ही उसका सृजनहार है, समय ही उसको बनाता है। समय ही सब कुछ करता है। वह कुछ नहीं करता। जिन लोगों का यह विचार व मत है, मेरे विचार से वे इतिहास की गलत व्याख्या करते हैं। ऐतिहासिक परिवर्तनों के कारणों के संबंध में तीन अलग-अलग मत रहे हैं। हमारे पास इतिहास के ऑगेस्टिनियन सिद्धांत हैं। उसके अनुसार इतिहास केवल एक दैवी योजना की अभिव्यंजना है। उसके अंतर्गत मानव-जाति को युद्ध तथा पीड़ा झेलते हुए उस समय तक निरंतर बने रहना है, जब तक वह दैवी योजना कयामत के दिन पूरी न हो सके। वकिल का मत है कि इतिहास की रचना भूगोल तथा भौतिकी ने की है। कार्ल मार्क्स ने तीसरा मत प्रतिपादित किया है। उसके अनुसार इतिहास आर्थिक शक्तियों का प्रतिफ़ल है। इन तीनों में से कोई भी यह स्वीकार नहीं करता कि इतिहास महापुरुषों की जीवनी होता है। वास्तव में, वे इतिहास के निर्माण में व्यक्ति को कोई स्थान नहीं देते। केवल धर्म-विज्ञानियों को छोड़कर और कोई भी इतिहास के ऑगेस्टिनियन सिद्धांत को स्वीकार नहीं करता। जहां तक बकिल तथा मार्क्स का संबंध है, यद्यपि उनके कथन में सत्यता है, परंतु उनके मत पूर्ण सत्य को निरुपित नहीं करते। उनका यह मत बिल्कुल गलत है कि इतिहास के निर्माण में व्यक्ति से इतर शक्तियां ही सब कुछ होती हैं और व्यक्ति का उसे बनाने में कोई हाथ नहीं होता है। व्यक्ति से इतर शक्तियां एक निर्धारी कारक होती हैं, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। परंतु यह बात भी स्वीकार की जानी चाहिए कि व्यक्ति से इतर शक्तियों का प्रभाव व्यक्ति पर निर्भर करता है। चकमक हर स्थान पर विद्यमान नहीं हो सकता, परंतु जहां विद्यमान होता है, वहां अग्रि उत्पन्न करने के लिए चकमक से चकमक को रगड़ने के लिए मनुष्य की आवश्यकता होती है। बीज सर्वत्र नहीं पाए जाते। परंतु वे जहां पाए जाते हैं, वहां भी मनुष्य की आवश्यकता पड़ती है। उन्हें बोने के लिए जमीन को कमाना पड़ता है, जमीन को भुरभुरा करना पड़ता है। उसे अनुकूल बनाने के लिए खाद-पानी देना पड़ता है और इस तरह नींव पड़ती है, कृषि की। अनेक ऐसे क्षेत्र हैं जहां धातुएं नहीं पाई जातीं, परंतु जहां पर पाई जाती हैं वहां भी उनसे वे मशीनें तथा उपकरण बनाने के लिए मनुष्य की आवश्यकता पड़ती है, जो कि सभ्यता तथा संस्कृति के आधार स्तंभ हैं।

सामाजिक शक्तियों को ही देखें। विभिन्न प्रकार की अनेक दुखद स्थितियां उत्पन्न होती हैं। ऐसी ही एक प्रकार की स्थिति वह है, जिसका वर्णन थायर ने थियोडोर रुजवेल्ट के जीवन-चरित्र में किया है। वह कहते हैं:

‘‘प्रत्येक वर्ग, दल या संस्था में एक ऐसा समय आता है, जब उसका विकास रूक जाता है, उसकी धमनियां कठोर हो जाती हैं, उसके युवा वर्ग का कोई स्वप्न ही नहीं होता, उसके वृद्धजन कोई स्वप्न ही नहीं देखते, वे अपने अतीत में ही खोए रहते हैं और हताश होकर अतीत को ही शाश्वत बनाए रखने का प्रयत्न करते हैं। राजनीति में भी जब घोर जड़ता की यह प्रक्रिया आ जाती है, तब हम उसे दूर करने का प्रयास नहीं करते। परिवर्तित तथा नवीन परिस्थितियों के साथ स्वयं को समायोजित करने में असमर्थ पाकर हम वापस अतीत में चले जाते हैं, उसी प्रकार जिस प्रकार एक बूढ़ा आदमी पुरानी आराम कुर्सी में धंस जाता है।‘‘

दूसरी प्रकार की स्थिति अपकर्ष की स्थिति नहीं, बल्कि विनाश की स्थिति है। इसकी संभावना जब भी कोई संकट होता है, उस समय तो रहती ही है। पुराने तरीके, पुरानी आदतें तथा पुराने विचार समाज का उत्थान व उत्कर्ष करने तथा उसका मार्गदर्शन करने में असफ़ल रहते हैं। जब तक उनमें नवीनतम नहीं आती, तब तक उनके जीवित रहने की संभावना नहीं होती। कोई भी समाज निर्विध्न नहीं चलता। उसमें अपकर्ष तथा विनाश की संभावनाओं के भूचाल आते ही रहते हैं। प्रत्येक समाज को उनका सामना करना पड़ता है। कुछ जीवित रहते हैं, कुछ नष्ट हो जाते हैं और कुछ में गतिहीनता और अपकर्ष होने लगता है। यह क्यों होता है? क्या कारण है कि कुछ जीवित रहते हैं? कार्लाइल ने इसका उत्तर दिया है। वह अपनी विशिष्ट शैली में कहते हैं:

‘‘जरूरी नहीं कि कोई युग नष्ट-भ्रष्ट हो ही, यदि वह पर्याप्त महान एवं विद्वान व्यक्ति को प्राप्त कर लें। यदि समय की सही मांग को पहचानने वाले ज्ञानचक्षु हों, उसे सही मार्ग दिखाने का साहस एवं शौर्य हो तो किसी भी युग का उद्धार हो सकता है।‘‘

मुझे यह उन लोगों के लिए एक बिल्कुल निर्णायक उत्तर प्रतीत होता है, जो इतिहास के बनाने में मनुष्य को कोई स्थान प्रदान करने से इन्कार करते हैं। संकट-काल का मुकाबला नए तरीकों की खोज से किया जा सकता है। जब कोई नया मार्ग व तरीका नहीं मिलता तो समाज का पतन हो जाता है। समय संभावित नवीन मार्ग प्रस्तुत कर सकता है। परंतु सही मार्ग पर चलना समय का काम नहीं है। यह काम मनुष्य का है। अतएव मनुष्य इतिहास के निर्माण का एक साधन है और पर्यावरण संबंधी शक्तियों के, चाहे दैवी हों या सामाजिक, भले ही सर्वप्रथम हों, पर वे अंतिम चीज नहीं हैं।