भावी पीढ़ियां महान पुरुषों के अंतिम वचनों और अंतिम पश्चात्तापों में हमेशा रुचि लेती है। महान पुरुषों के अंतिम वचन इस लोक के बारे में उनके अनुभव तथा परलोक संबंधी उनकी अनुभूति के संदर्भ में हमेशा महत्वपूर्ण नहीं होते। उदाहरण के लिए सुकरात के अंतिम विचार ये थे कि उन्होंने क्रिटों को बुलाकर उससे यह कहा, ‘‘हम एसक्युलेपियस को एक मुर्गे के देनदार हैं; उसका कर्जा चुकाना और इसे किसी भी हालत में नहीं भूलना।‘‘ किन्तु महान पुरुषों के अंतिम पश्चात्ताप हमेशा महत्वपूर्ण होते हैं, और वे मनन करने के योग्य होते हैं। नेपोलियन की मनोदशा को लीजिए। सेंट हेलेना में अपनी मृत्यु से पहले नेपोलियन ने तीन महत्वपूर्ण मुद्दों के बारे में अपनी बेचैनी जताई, जो आखिर में उसके पश्चात्ताप बने। वे इस प्रकार थे:
वह अपने जीवन की सर्वोच्च घड़ी में अपने प्राण नहीं छोड़ सका, उसने मिस्र छोड़ा, अपनी पूर्व दिशा में विजय प्राप्त करने की महत्वाकांक्षाओं का त्याग किया और उसका अंतिम पश्चात्ताप जो किसी भी प्रकार से किसी से कम नहीं था, वह था वाटरलू में उसकी हार। क्या रानाडे के मन में कोई भारी पश्चात्ताप थे? एक बात तो निश्चित है कि यदि रानाडे को कोई पश्चात्ताप थे, तो वे उस प्रकार के पश्चात्ताप नहीं थे, जिन्होंने नेपोलियन के मन की शांति भंग कर दी थी। रानाडे सेवा के लिए जीवित रहे, न कि प्रशंसा के लिए, उनके लिए इस बात का बहुत कम महत्व था कि उनकी मृत्यु उनके यशस्वी तथा गौरवशाली क्षण में हो या अकीर्तिकर क्षण में( या वह एक नायक के रूप में मरें( एक विजेता या स्वामी के रूप में मरें या वे एक साधारण आदमी की तरह मामूली सर्दी-जुकाम से मरें। वास्तव में, रानाडे को कोई पश्चात्ताप नहीं था। अभिलेख से पता चलता है कि रानाडे को किसी ऐसे कार्य या घटना का आभास नहीं था, जिसका उन्हें पश्चात्ताप रहा हो। वे आजीवन प्रसन्न व शांत रहे। परंतु यह पूछना उचित है कि यदि रानाडे आज जीवित हो जाएं तो क्या उन्हें कोई पश्चात्ताप होगा? मुझे विश्वास है कि एक विषय ऐसा है, जिसके संबंध में वह बहुत ही दुखी होंगे, और वह विषय है – भारत में उदार दल (लिबरल पार्टी) की वर्तमान स्थिति।
भारत में उदार दल की इस समय क्या स्थिति है? उदार दल आहत है। वास्तव में, यह बहुत नरम अभिव्यक्ति है। उदारवादी भारतीय राजनीति के ‘तिरस्करणीय व्यक्ति‘ हैं। नॉर्टन द्वारा एक अन्य संदर्भ में प्रयुक्त शब्दों में कहें तो उन्हें न जनता ने अपनाया और न ही सरकार ने। उनमें इन दोनों में से किसी की भी अच्छाई नहीं है, किन्तु दोनों की बुराइयां हैं। एक समय ऐसा था, जब उदार दल कांग्रेस का प्रतिद्वंदी था। आज उदार दल का कांग्रेस के साथ संबंध कुत्ते और मालिक के संबंध जैसा है। कभी-कभार कुत्ता अपने मालिक पर भौंकता है, किन्तु अपने जीवन में अधिकांश समय में वह अपने मालिक के पीछे चलने में ही संतुष्ट रहता है। उदार दल कांग्रेस की पूंछ के अलावा और क्या है? उसका अस्तित्व इतना निरर्थक हो गया है कि बहुत से लोग यह कह रहे हैं कि उदारवादी कांग्रेस में क्यों नहीं मिल जाते? रानाडे उदार दल के विध्वंस से होने वाले पश्चात्ताप को किस प्रकार पचा सकते हैं? कोई भी भारतीय किस प्रकार इस पश्चात्ताप को पचा सकता है? उदारवादियों के लिए उदार दल की किलता एक अति दुखद घटना है। परंतु देश के लिए वास्तव में यह एक घोर अनर्थ है। एक दल का अस्तित्व लोकप्रिय सरकार के लिए इतना अधिक अनिवार्य होता है कि इसके बिना आगे बढ़ने के संबंध में सोचा ही नहीं जा सकता। अमरीका के एक प्रसिद्ध इतिहासकार ने कहा है – ‘‘अपने संवैधानिक संगठन के किसी भाग की किलता और लिखित संविधान के एक बड़े भाग के डूबने की कल्पना करना कहीं आसान है, पर राजनीतिक समूहों के बिना आगे बढ़ने की कल्पना करना कहीं कठिन है। वे तो हमारी जीवनदायनी संस्थाएं हैं।
वास्तव में, किसी दल में नियंत्रण और अनुशासन के बिना मतदाताओं के समूह द्वारा देश पर शासन करने के प्रयास को जेम्स ब्राइस ने इस प्रकार कहा है: ‘‘यह उसी प्रकार का प्रयास है, जैसे कि शेयर धारकों के वोटों द्वारा रेलवे बोर्ड के प्रबंधन का प्रयास करना, या यात्रियों के वोटों द्वारा चलते हुए जहाज की दिशा बदलना।‘‘
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि जन-सरकार के लिए दल एक अनिवार्य घटक होता है। परंतु इसी प्रकार इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि जनसरकार के लिए एक दल का शासन घातक होता है। वास्तव में, यह तो जन-सरकार को नकारना है। इस संबंध में जर्मनी और इटली का उदाहरण सबसे संगत उदाहरण है। वहां तो सर्वसत्तावादी देशों से चेतावनी लेनी थी। कहां हम उनके पदचिह्नों पर चलने के लिए उन्हें अपना आदर्श मान रहे हैं। राष्ट्रीय एकता के नाम पर इस देश में एक दलीय प्रणाली का स्वागत किया जा रहा है। जो लोग ऐसा कर रहे हैं, वे एक दलीय शासन के दोषों की ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं, उसमें इस बात की गुंजाइश है कि अत्याचार हो और सार्वजनिक कार्यकलापों को गलत दिशा दे दी जाए। एक दलीय जन-सरकार को चलने देना लोकतंत्र को परोक्ष रूप से तानाशाही बनने की अनुमति देना है। भारत में कांग्रेस शासन के अधीन हमारा यह अनुभव रहा है कि एक दल की सरकार के शासन में बहुमत का अत्याचार किस प्रकार कोरा अत्याचार नहीं रहता और कैसे वह एक जोखिम भरा तथ्य बन जाता है। क्या श्री राजगोपालाचारी ने हमसे यह नहीं कहा था कि कार्यपालिका और न्यायपालिका का अलग-अलग होना अब आवश्यक नहीं रहा है, जैसा कि ब्रिटिश शासन में आवश्यक था? क्या यह तानाशाह के मुंह में खून लगने जैसा नहीं है? क्या तानाशाही इसलिए तानाशाही नहीं रहती कि वह निर्वाचित है? तानाशाही इसलिए भी स्वीकार्य नहीं हो जाती कि तानाशाह हमारे अपने ही भाई-बंधु हैं। तानाशाह का चयन यदि चुनाव द्वारा किया जाए तो यह तानाशाही के विरुद्ध गारंटी नहीं है। तानाशाही के विरुद्ध वास्तविक गारंटी यही है कि उसे सत्ता से हटाने के लिए उसका मुकाबला किया जाए- उसे नीचा दिखाया जाए और उसके एक प्रतिद्वंद्व दल द्वारा उसे उखाड़ा जाए। प्रत्येक सरकार निर्णय में गलती कर सकती है, बहुत ही बुरा प्रशासन दे सकती है, भ्रष्टाचार, अन्याय और दमन व अत्याचार तथा प्रतिष्ठा के कार्य कर सकती है। कोई भी सरकार आलोचना से मुक्त नहीं होनी चाहिए। किन्तु सरकार की आलोचना कौन कर सकता है? यदि यह बात व्यक्तियों पर छोड़ दी जाए तो आलोचना कौन कर सकता है। सर टोंबी यह सलाह दे गए हैं कि किसी व्यक्ति को अपने शत्रु से किस प्रकार निबटना चाहिए? उन्होंने कहा था, ‘‘जैसे ही तुम उसे देखों, वैसे ही उसे तुरंत खींच लो और जैसे ही खींचों उस पर भयंकर रूप से दहाड़ों‘‘।
परंतु इस सलाह पर अमल करना उस व्यक्ति के लिए संभव नहीं, जो सरकार के विरुद्ध लड़ना चाहता है। ऐसी बहुत सी बातें हैं जो व्यक्तियों के विरुद्ध इस भूमिका को सफ़लतापूर्वक निभा रही हैं। ब्राइस के अनुसार एक तो यह है कि विशाल जनसमूह भाग्यवादी है। व्यक्तिगत प्रयास की महत्ता न होने के कारण उनमें मौन स्वीकृति तथा समर्पण की प्रवृत्ति है। वे अपने को असहाय समझते हैं, क्योंकि उनका विश्वास है कि मनुष्य के कार्यकलापों का संचालन तो बड़ी शक्तियां करती हैं और उनकी धारा को व्यक्ति अपने प्रयास से नहीं मोड़ सकता। दूसरे, बहुसंख्यकों के अत्याचार की संभावना होती है। उन व्यक्तियों का जो बहुमत के पीछे नहीं चलते, प्रायः उनका दमन किया जाता है, उन्हें दंड दिया जाता है और उन्हें अन्य सामाजिक असुविधाओं का सामना करना पड़ता है। कांग्रेस के शासन में हममें से कुछ लोगों को इसका पर्याप्त अनुभव मिल चुका है। तीसरे, सीआईडी का भय है। गेस्टापों तथा अन्य सभी साधन आलोचकों पर निगरानी रखने तथा उन्हें शांत करने के लिए सरकार के पास मौजूद हैं।
स्वतंत्रता रहस्य है साहस का और साहस व्यक्तियों द्वारा एक दल में बंध जाने से उत्पन्न होता है। सरकार को चलाने के लिए दल अनिवार्य होता है। किन्तु सरकार निरंकुश न हो जाए, इसके लिए दो दलों का होना अनिवार्य है। एक लोकतांत्रिक सरकार तभी लोकतांत्रिक रह सकती है, जब कि वहां दो दिल हों, अर्थात सत्तारूढ़ दल ओर दूसरा विरोधी दल। जैसा कि जेनिंग्स ने कहा है: ‘‘यदि विपक्ष नहीं है तो लोकतंत्र भी नहीं है। महामहिम का विपक्ष कोई निरर्थक उक्ति नहीं होती। महामहिम को विपक्ष भी चाहिए तथा सरकार भी।‘‘
इन विचारों के परिप्रेक्ष्य में इस बात से कौन इंकार कर सकता है कि भारत में उदार दल की किलता एक बड़ा अनर्थ नहीं है? उदार दल के पुनरुज्जीवन या एक अन्य दल के निर्माण के बिना, स्वतंत्रता के लिए संघर्ष का परिणाम यह होगा कि स्वतंत्रता छिन जाएगी क्योंकि तानाशाही और स्वतंत्रता के बीच सांप और न्योले जैसा बैर होता है, चाहे तानाशाही देशी हो या विदेशी। यह खेद का विषय है कि भारतीय लोगों ने इस तथ्य की उपेक्षा की है। परंतु मुझे इस बात में संदेह नहीं कि जो लोग यह चिल्लाते हैं कि केवल कांग्रेस ही एकमात्र पार्टी है और कांग्रेस ही राष्ट्र है, उनको अपने इस निर्णय पर पछताना पड़ेगा। उदार दल किल क्यों हुआ है? क्या रानाडे के दर्शन में कोई त्रुटि है? क्या उदार दल के लोगों में कोई दोष या उदारदल की कार्यप्रणाली में कोई दोष है? मेरा अपना यह मत है कि रानाडे के दर्शन में व उनकी विचारधारा में कोई बुनियादी दोष नहीं है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि इन दोनों में कांग्रेस का ध्येय सर्वोत्तम है और उदार दल के पास सर्वोत्तम व्यक्ति हैं। उदार दल के पास दोनों बातें हैं। मेरे विचार से उदार दल इसलिए किल हुआ कि उसमें संगठन का पूर्ण अभाव था।
उदार दल के संगठन की कमजोरियों को प्रकट करना अरुचिकर नहीं होगा।
पेंडलेंटन हेरिंग ने अपनी पुस्तक-पालिटिक्स आफ़ डेमोक्रेसी -में यह कहा है कि एक पार्टी का संगठन तीन संकेन्द्रित मंडलों में फ़ैला होता है। केंद्रीय मंडल गुट तंत्र का प्रतिनिधित्व करता है। इसका दल के संगठन पर नियंत्रण होता है, जिसे उच्च कमान कहते हैं। उसके साथ उसके कार्यकर्ता जुड़े होते हैं। इन कार्यकर्ताओं का मुख्य धंधा यह होता है कि चाहे चालीय अधिकारी के रूप में अथवा सार्वजनिक पद के रूप में हो, पार्टी संगठन के माध्यम से अपना पेट भरें। वे पेशेवर राजनेता कहलाते हैं और पार्टी तंत्र के रूप में काम करते हैं। इस आंतरिक मंडल, अर्थात हाई कमान तथा तंत्र के चारों ओर ऐसे बहुत से लोगों का एक बड़ा घेरा होता है, जो भावात्मक निष्ठा तथा परंपरा के बंधन से दल के साथ बंधे होते हैं। वे दल के द्वारा घोषित सिद्धांतों का आदर करते हैं। वे पार्टी के पेशेवर कार्यकर्ताओं तथा नेताओं के कार्यों की अपेक्षा अपने दल के आदर्शों तथा प्रतीकों के प्रति अधिक सजग रहते हैं। वे दल के आदर्श को वोट देते हैं, दल के रिकार्ड को नहीं। इस दूसरे मंडल के बाहर लोगों का वह विशाल जनसमूह होता है, जो किसी दल से जुड़ा नहीं होता। ये लोग थाली के बैंगन जैसे होते हैं। वे किसी दल से नहीं जुड़ते। इसका कारण यह है कि वे या तो लक्ष्य-विहीन होते हैं, विचार शून्य होते हैं या उनके कोई ऐसे विशेष हित होते हैं, जिनका समावेश किसी भी मंच में नहीं होता। दूसरे मंडल के बाहर जो लोग होते हैं, वे किसी भी राजनीतिक दल के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्यक्षेत्र होते हैं, वे ही वह पुरस्कार हैं जिसे पार्टी को प्राप्त करना ही चाहिए। इस पुरस्कार को प्राप्त करने के लिए सिद्धांतों को प्रतिपादित करना तथा राजनीति को सूत्रबद्ध करना पर्याप्त नहीं है। लोगों की सिद्धांतों तथा राजनीति में रुचि नहीं होती, बल्कि रुचि कार्यों को कार्यरूप देने में होती है। एक दल के लिए यह आवश्यक होता है कि वह संगठित प्रयास कराए। राष्ट्रपति वुडरो विल्सन ने कहा है कि बहुमत शासन वाले स्वशासन में कार्यों को व्यक्तिगत प्रयास से नहीं, बल्कि संगठित प्रयास से पूरा किया जा सकता है। अब देखना यह है कि संयुक्त प्रयास के लिए क्या आवश्यक होता है? इसके लिए यह आवश्यक है कि व्यक्तिगत मत को जनमत में परिणत किया जाए। अतः किसी पार्टी का मुख्य कर्तव्य यह हो जाता है कि जनमत की इस परणति अथवा निर्माण को किसी सिद्धांत विशेष की स्वीकृति का रूप दें। सिद्धांत रूप में राजनीतिक दल जनमत की अभिव्यक्ति तथा कार्यान्वयन के माध्यम होते हैं, परंतु व्यवहार में दल जनमत तैयार करते हैं, उसका मार्गदर्शन करते हैं, उसे प्रभावित करते हैं और प्रायः उसका नियंत्रण करते हैं। वास्तव में, यह दल का मुख्य कार्य होता है। इसके लिए दल को दो कार्य करने चाहिएं। पहला काम यह है कि उसे जनता के साथ अपना संपर्क रखना चाहिए। वह जनता के बीच में जाए और उसको अपने सिद्धांतों, नीतियों, विचारों तथा उम्मीदवारों के विषय में जानकारी दें। दूसरा काम यह है कि उसे चाहिए कि वह अपने माल, अर्थात अपनी बातों के पक्ष में प्रचार करें। उसे चाहिए कि वह उनके संबंध में जनता को पूरी तरह से जानकारी देकर उनके प्रति उसे जागरूक करे। पुनः ब्राइस के शब्दों में – ‘‘मतदाताओं को उन राजनीतिक मसलों की जानकारी दीजिए, जिनके बारे में उन्हें निर्णय करना है, उन्हें अपने नेताओं के विषय में सूचना दीजिए तथा अपने विरोधियों के दोषों तथा अपराधों को बताइए।‘‘ ये बुनियादी बाते हैं, जिनसे संगठित प्रयास का श्रीगणेश हो सकता है। जो दल संगठित प्रयास करने में असफ़ल रहता है, उसे स्वयं को दल कहने का कोई अधिकार नहीं होता।
उदार दल ने एक संगठन के रूप में इनमें से कौन सा कार्य किया है। उदार दल के पास केवल उच्च कमान है। उसके पास कोई तंत्र न होने के कारण उच्च कमान केवल एक छाया मात्र है। उसका अनुयायी वर्ग केवल उस संकेन्द्रित मंडल तक ही सीमित होता है, जिसमें परंपरा के बंधनों से बंधे लोग होते हैं। नेताओं के पास ऐसा कुछ नहीं होता, जिससे वे लोगों के अंदर भावात्मक निष्ठा उत्पन्न कर सकें। भीड़ को एकत्रित करने के लिए उनके पास युद्ध का नारा नहीं होता। उदार दल का जन-संपर्क में विश्वास नहीं है। एक ऐसे दल के विषय में कल्पना नहीं की जा सकती, जो मुख्य जनधारा से नितांत अलग-थलग हो। वह धर्म -परिवर्तन में विश्वास नहीं करता। यह बात नहीं है कि प्रचार करने के लिए उसके पास कोई सिद्धांत नहीं है, लेकिन हिन्दू धर्म की भांति वह धर्मांतरण निरपेक्ष पंथ है। सिद्धांतों तथा नीतियों को सूत्रबद्ध करने में उसका विश्वास है। परंतु वह उन्हें कार्यान्वित करने का प्रयास नहीं करता। प्रचार तथा संगठित प्रयास उदार दल के लिए वर्जनाएं हैं। वे व्यक्तिगत स्तर पर आवाज उठाते हैं। वे सालाना बैठकें करते हैं। जब क्रिप्स जैसा कोई व्यक्ति आता है अथवा जब वाइसराय महत्वपूर्ण व्यक्तियों को आमंत्रित करता है तो वे आमंत्रण के लिए भाग-दौड़ करते हैं। बस यही सीमा है, उनकी राजनीतिक गतिविधि की।
यदि उदार दल की बदनामी हुई है तो क्या इसमें कोई आश्चर्य हैं? उदार दल सबसे महत्वपूर्ण इस तथ्य को भूल गया है कि किसी भी उद्देश्य की पूर्ति के लिए संगठन का होना अनिवार्य है और विशेष रूप से राजनीति में तो बहुत ही अनिवार्य है, जहां अनेक परस्पर विरोधी तत्वों को व्यवहारिक एक-सूत्रता में बांधना बहुत ही महत्वपूर्ण होता है।
भारत में उदार दल की इस किलता के लिए कौन उत्तरदायी है? तथापि, हमें इस बात को कहने का बहुत खेद है और मेरा विचार है कि हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि इस किलता का उत्तरदायित्व किसी हद तक रानाडे पर भी है। रानाडे का संबंध विशिष्ट वर्गों से था। उनका जन्म तथा पालनपोषण उनके अंदर ही हुआ था। वह कभी भी जनता के आदमी नहीं बने। उदार दल के पास कोई तंत्र या मशीनरी नहीं है। उसने एक तंत्र व मशीनरी का निर्माण क्यों नहीं किया, इसका कारण यह है कि इस दल का जन-संपर्क में विश्वास नहीं था। जन-संपर्क के प्रति विमुखता रानाडे की प्रमुखता है। जन-संपर्क की उपेक्षा करके यह दल रानाडे द्वारा छोड़ी गई परंपरा का अनुसरण कर रहा है। उदार दल के लिए रानाडे की एक और परंपरा है, और उसका संबंध सिद्धांतों तथा नीतियों की प्रेरणा-शक्ति में झूठे विश्वास से है। मेजिनी ने एक बार कहा था, ‘‘आप व्यक्ति की हत्या कर सकते हैं, उसके महान विचार की नहीं‘‘। मुझे यह सबसे गलत विचार प्रतीत होता है। मनुष्य नश्वर होते हैं। उसी प्रकार विचार भी होते हैं। यह विचार गलत है कि विचार अपना संवर्धन स्वयं कर सकते हैं। जिस प्रकार पौधे को पानी की, उसी प्रकार विचार को प्रचार की दरकार रहती है अन्यथा दोनों मुरझाकर नष्ट हो जाएंगे।
रानाडे, मेजिनी से सहमत थे और इस बात में उनका विश्वास नहीं था कि विचार के पल्लवन के लिए किसान की भांति एड़ी-चोटी का पसीना बहाने के जरूरत है। यदि उदार दल केवल सिद्धांत तथा नीति-निर्धारण से ही संतुष्ट है तो उसके लिए रानाडे की परंपरा ही उत्तरदायी है।
उदारवादियों के क्या कर्तव्य हैं? मैं यह जानता हूं कि सभी उदारवादी यही कहेंगे कि हमारा कर्तव्य अपने गुरु का अनुसरण करना है। सच्चे श्रद्धालु शिष्यों के समूह का और क्या दृष्टिकोण हो सकता है? किन्तु इसके अलावा क्या कोई और बात अधिक भ्रांतिपूर्ण और अविवेकपूर्ण हो सकती है? इस प्रकार के दृष्टिकोण के दो अर्थ लगाए जा सकते हैं। एक यह है कि महान व्यक्ति अपने शिष्यों पर अपने सिद्धांत थोपते हैं। दूसरी बात यह है कि शिष्यों को अपने गुरु से अधिक बुद्धिमान नहीं होना चाहिए। किन्तु ये दोनों निष्कर्ष गलत हैं। ये गुरु के प्रति अन्याय करते हैं। कोई भी महापुरुष वास्तव में अपने सिद्धांतों या निष्कर्षों को अपने शिष्यों पर थोपकर उन्हें पंगु नहीं बनाता। महापुरुष अपने शिष्यों पर अपने सिद्धांत नहीं थोपता। वह उनका आह्वान करता है और उनकी विभिन्न क्षमताओं को जागृत करके उन्हें कर्मठ बनाता है। शिष्ट अपने गुरु से केवल मार्गदर्शन प्राप्त करता है। वह अपने गुरु के निष्कर्षों को स्वीकार करने के लिए बाध्य नहीं है। अपने गुरु के सिद्धांतों या निष्कर्षों को अस्वीकार करने में शिष्य की कोई कृतध्नता नहीं होती। जब वह उन्हें पुनः अस्वीकार करता है, तब भी वह हार्दिक आदर के साथ अपने गुरु के संबंध में यह स्वीकार करता है, ‘‘आपने मुझसे स्वयं मेरा परिचय कराया, मुझे ज्ञान प्रदान किया, इसके लिए मैं आपको धन्यवाद देता हूं।‘‘ गुरु इस आदर से कम का पात्र नहीं है। और शिष्य इससे अधिक आदर लेने के लिए बाध्य नहीं है।
अतः यह बात गुरु के लिए भी सही नहीं है और स्वयं शिष्य के लिए भी सही नहीं है कि वह गुरु के सिद्धांतों और निष्कर्षों के बंधन में बंधकर रह जाए। उसका कर्तव्य सिद्धांतों को जानना है और यदि वह उनके मूल्यों और उनकी सार्थकता से संतुष्ट हो जाए तो उनका प्रचार-प्रसार करना है। यह प्रत्येक गुरु की इच्छा होती है। ईसा मसीह और बुद्ध ने भी यही चाहा था। मुझे पूरा विश्वास है कि रानाडे की भी यही इच्छा रही होगी कि यदि उदारवादियों का रानाडे के प्रति आस्था, प्यार और आदर है तो उनका परम कर्तव्य एक साथ मिलकर उनका गुणगान करनी ही नहीं है, बल्कि रानाडे के विचारों और सिद्धांतों को फ़ैलाने के लिए अपने को संगठित करना भी है।
इस बात की कितनी आशा है कि उदारवादी इस कर्तव्य को पूरा करने के लिए आगे आएंगे। इस संबंध में लक्षण शुभ नहीं हैं। पिछले चुनावों में उदारवादियों ने एक भी सीट के लिए चुनाव नहीं लड़ा। निःसंदेह यह अपने आप में आश्चर्य की बात है। किन्तु यह बात स्वयं ही प्रभावहीन हो जाती है, जब कोई व्यक्ति उदार दल के प्रमुख प्रकाश-स्तंभ माननीय श्रीनिवास शास्त्री की इस घोषणा को याद करता है कि वह कांग्रेस की सफ़लता की कामना करते हैं। इस बात की तुलना तो केवल भीष्म के विश्वसघाती और द्रोहात्मक आचरण से हो सकती है। वह माल तो कौरवों का उड़ाते थे पर उनके शत्रुओं अर्थात् पांडवों की सफ़लता के न केवल गति गीत अघाते थे, बल्कि उनके लिए जान भी खपाते थे। इससे यह पता चलता है कि उदारवादियों का भी रानाडे के सिद्धांतों पर से विश्वास उठ गया था। यदि उदार दल की सेहत की यही हालत है तो यह अच्छा ही होगा कि यह दल मर-मिट जाए। इससे एक नए विन्यास के लिए रास्ता खुलेगा और हमें उदारवादियों तथा उदारतावाद की व्यर्थ की बकबक व बकझक की नीरसता से छुटकारा मिलेगा। यदि ऐसा होगा तो दिवंगत रानाडे की आत्मा को शांति ही मिलेगी।