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12. शूद्र और प्रतिक्रांति

डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर सोर्स मैटिरियल पब्लिकेशन कमेटी को  मूल अंग्रेजी की पांडुलिपि में फुलस्केप टाइप किए हुए इक्कीस पृष्ठ  प्राप्त हुए थे। प्रथम पृष्ठ पर शीर्षक ‘शूद्राज एंड दि काउंटर रिवोल्यूशन’  (शूद्र और प्रतिक्रांति) दिया गया है और आगे के पृष्ठों पर सामग्री  इसी शीर्षक से शुरू होती है। ये सभी पृष्ठ बिखरे और एक-दूसरे से  नत्थी किए हुए मिले हैं। दुर्भाग्य से केवल इक्कीस पृष्ठ उपलब्ध हैं  और बाद के पृष्ठ लगता है कि खो गए हैं – संपादक

शूद्रों की स्थिति के विषय में मनु के नियम अध्ययन के लिए एक बहुत ही रोचक

विषय हैं। इसका सीधा-सा कारण यह है कि इन नियमों ने हिंदुओं की मनोवृत्ति को ढाला

और शूद्रों के प्रति उनके दृष्टिकोण को निर्धारित किया, जो इस समय और हर युग में

सबसे अधिक संख्या में हिंदू समाज के अंग रहे हैं। इन नियमों को नीचे अलग-अलग

शीर्षकों में वर्णित किया गया है, जिससे पाठकों को उस स्थिति की पूरी-पूरी जानकारी

मिल सके, जो मनु ने शूद्रों के समाज को दी है।

4.61. मनु ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य गृहस्थों को आदेश देता है – ‘वे उस

देश में न रहें जहां शासक शूद्र हों’। शूद्र सम्मानित व्यक्ति नहीं समझा जाए,

क्योंकि मनु नियम बताता हैः

9.24. ब्राह्मण कभी भी यज्ञ (करने) के लिए, अर्थात् धार्मिक कार्यों के लिए शूद्र

से कभी भी धन नहीं मांगेगा। शूद्रों के साथ वैवाहिक संबंध प्रतिबंधित थे। शेष

तीन वर्णों में से किसी भी वर्ण की नारी के साथ विवाह निषिद्ध था। उच्च वर्ण

की नारी के साथ शूद्र को कोई भी संबंध रखने का अधिकार नहीं था और उसके

साथ यदि कोई शूद्र जार कर्म करता है, तो इस अपराध के लिए मनु ने उसे मृत्यु

दंड का प्रावधान किया है।

8.374. जो शूद्र उच्च वर्ण की किसी रक्षित1 या अरक्षित नारी के साथ संभोग करता

है, उसे निम्नलिखित रीति के आधार पर दंड दिया जाएगाः

यदि वह अरक्षित थी तब उसका अपराधी अंग कंटवा दिया जाए। यदि वह सुरक्षित

थी तब उसे दंड दिया जाए और उसकी संपत्ति अधिग्रहीत कर ली जाए।

पद के संबंध में मनु निर्धारित करता हैः

8.20. कोई भी ब्राह्मण जो जन्म से ब्राह्मण है, अर्थात् जिसने न तो वेदों का अध्ययन

किया है और न वेदों द्वारा अपेक्षित कोई कर्म किया है, वह राजा के अनुरोध पर

उसके लिए धर्म का निर्वचन कर सकता है, अर्थात् न्यायाधीश के रूप में कार्य

कर सकता है, लेकिन शूद्र यह कभी भी नहीं कर सकता, चाहे (वह कितना ही

विद्वान क्यों न हो)।

8.21. जिस राज्य में उसका राजा दर्शक की भांति केवल देखता रहता है और उसकी

उपस्थिति में शूद्र न्याय का विचार करता है, वह राज्य उसी प्रकार अधोगति को

प्राप्त होता है, जिस प्रकार गाय दलदल में नीचे की ओर धंस जाती है।

8.272. अगर कोई शूद्र अहंकारवश ब्राह्मणों को धर्मोपदेश देने की धृष्टता करता है,

तो राजा को चाहिए कि वे उसके मुंह और कान में खौलता तेल डलवा दे।

शूद्रों द्वारा ज्ञान ग्रहण करने के संबंध में मनु की व्यवस्थाएं निम्न प्रकार हैं:

3.456. जो शूद्र शिष्यों को अध्ययन कराता है और जिस किसी का शिक्षक शूद्र

होता है, वह शूद्र को नियुक्त करने के कारण अयोग्य हो जाते हैं।

4.99. उसे शूद्र की उपस्थिति में…… वेदों का कभी भी पाठ नहीं करना चाहिए।

वेदाध्ययन करने पर शूद्रों को दंडित करने के संबंध में मनु के परवर्ती लेखक तो

और भी कठोर हैं। उदाहरण के लिए, कात्यायन का कहना है कि यदि कोई शूद्र वेद

वाक्य सुन ले अथवा वेद के एक शब्द का भी उच्चारण करे, तो राजा उसकी जिह्वा

को दो भागों में चिरवा दे और उसके कान में पिघला हुआ गरम सीसा डलवाए।

शूद्रों द्वारा संपत्ति रखे जाने के संबंध में मनु की व्यवस्था निम्नांकित हैः

10.129. (धनोपार्जन में) समर्थ होने पर भी शूद्र को धन का संग्रह नहीं करना चाहिए

क्योंकि नीच पुरुष, जिसने धन का संग्रह कर लिया है, अहंकारी हो जाता है।

8.417. यदि ब्राह्मण अपनी जीविकोपार्जन के लिए कष्ट में है तो वह निस्संकोच

अपने शूद्र की संपत्ति को अधिग्रहीत कर लें।

  1. रक्षित का अर्थ है किसी संबंधी के संरक्षण में, और अरक्षित का अर्थ है, अकेले रहना।

शूद्र केवल एक ही व्यवसाय कर सकता है। मनु के अटल नियमों में यह भी अटल

नियम है। मनु कहता हैः

1.91. ब्रह्मा ने शूद्रों के लिए एक ही व्यवसाय नियत किया है – विनम्रतापूर्वक तीन

अन्य वर्गों (अर्थात्) ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की सेवा करना।

10.121. अगर शूद्र (ब्राह्मणों की सेवा कर जीवन निर्वाह करने में असमर्थ है)

जीविका निर्वाह करना चाहता है, तब वह क्षत्रिय की सेवा करे, या वह धनी वैश्य

की सेवा कर अपनी जीविका के लिए धन अर्जन करे।

10.122. लेकिन वह (शूद्र) ब्राह्मणों की सेवा या तो स्वर्ग प्राप्त करने या दोनों के

लिए (इस जीवन और अगले जीवन के लिए) करें, क्योंकि जो ब्राह्मण का सेवक

कहलाता है, वह अपनी सभी अभिलाषाएं पूरी कर लेता है।

10.123. ब्राह्मणों की सेवा करना ही शूद्रों का एक उत्तम कर्म कहा गया है, क्योंकि

इसके अतिरिक्त वह जो-कुछ करता है, उसका उसे कोई फल नहीं मिलता।

मनु इस बात के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ता कि शूद्रों से दास कर्म कराने के

लिए किसी करार का सहारा लिया जाए। यदि कोई शूद्र सेवा करने से इंकार करता है,

तो उससे बलपूर्वक कार्य कराने का विधान है, जो इस प्रकार हैः

8.413. प्रत्येक ब्राह्मण शूद्र को दास-कर्म करने के लिए बाध्य कर सकता है, चाहे

उसने उसे खरीद लिया हो अथवा नहीं, क्योंकि शूद्रों की सृष्टि ब्राह्मणों का दास

बनने के लिए ही की गई है।

10.124. ब्राह्मणों को चाहिए कि वे अपने परिवार (की संपत्ति) में से उसे (शूद्र

को) उसकी योग्यता, उसके परिश्रम तथा उन व्यक्तियों की संख्या के अनुसार,

जिनका उसे (शूद्र को) भरण-पोषण करना है, उचित जीविका निश्चित करे।

10.125. उसे (शूद्र को) बचा खुचा अन्न, घर-गृहस्थी का पुराना सामान दिया

जाए।

मनु का कहना है कि शूद्र को चाहिए कि वह अन्य के साथ बातचीत और व्यवहार

में विनम्र रहे।

8.270. जो शूद्र द्विज को दारुण वचन कह उसकी निंदा करता है, उसकी जिह्वा

को काटकर फेंक देना चाहिए, क्योंकि वह जन्म से नीच है।

8.271. यदि वह (शूद्र) इनके (द्विजों के) नाम और जाति का इन द्विजातियों के

नाम तथा जाति का उच्चारण कर कटु वचन अपमानजनक रीति से उच्चारण करता

है तब उसके मुख में दहकती हुई लोहे की दस अंगुल लंबी गरम कील घुसेड़ दी

जाए।

मनु इतने से ही संतुष्ट नहीं है। वह कहता है कि शूद्र का यह निम्न स्तर इस वर्ण

के व्यक्तियों के नामों और उपनामों में परिलक्षित हो। मनु कहता हैः

2.31. ब्राह्मण के नाम का प्रथम अंश मंगल सूचक, क्षत्रिय का शक्ति सूचक, वैश्य

का धन सूचक, और शूद्र का कुछ ऐसा हो जो तिरस्कार सूचक हो।

2.32. ब्राह्मण के नाम का द्वितीयांश सुख-शांति सूचक, क्षत्रिय का रक्षा सूचक, वैश्य

का सौभाग्य सूचक और शूद्र का दास भाव सूचक होगा।

मनु से पहले शूद्रों की क्या स्थिति थी? मनु शूद्रों का निरूपण इस प्रकार करता है,

जैसे वे बाहर से आने वाले अनार्य थे। किंतु उन्हें वे सामाजिक अथवा धार्मिक अधिकार

प्राप्त नहीं होने चाहिए। दुर्भाग्य तो यह है कि लोगों के मन में यह धारणा घर कर गई

है कि शूद्र अनार्य थे। किंतु इस बात में कोई संदेह नहीं है कि प्राचीन आर्य साहित्य में

इस संबंध में रंच मात्र भी कोई आधार प्राप्त नहीं होता।

जब हम आर्यों के धार्मिक ग्रंथों को पढ़ते हैं, तब हमें उनमें विभिन्न समुदायों और

वर्गों का नामोल्लेख मिलता है। सर्वप्रथम आर्यों का उल्लेख मिलता है, जिनमें चार वर्ग

कहे गए हैं, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इनके अतिरिक्त और इनसे भिन्न थे (1)

असुर, (2) सुर अथवा देव, (3) यक्ष, (4) गंधर्व, (5) किन्नर, (6) चारण, (7)

अश्विनी, और (8) निषाद।

निषाद जंगल के निवासी थे और आदिम और असंस्कृत थे। गंधव र्, यक्ष, किन्नर,

चारण और अश्विनी वर्ग के समुदाय थे। असुर शब्द प्रजातीय नाम है, जो विभिन्न

जनजातियों के लिए दिया गया। ये जन-जातियां अपने-अपने विशिष्ट नामों से पुकारी

जाती हैं, जैसे दैत्य, दानव, दस्यु, कलंज, कलेय, कालिन, नाग, निवात-कवच, पुलोम,

पिशाच और राक्षस। हम यह नहीं कह सकते कि सुर और देव भी असुर की भांति

विभिन्न जन-जातियों के नाम थे। हम केवल देव समुदायों के प्रमुख देवों को जानते

हैं। इनमें से जो अधिक प्रसिद्ध हैं, वे हैं – ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, सूर्य, इंद्र, वरुण और

सोम आदि।

इन जातियों, अर्थात् आर्यों, असुरों और देवों के और इनके बीच परस्पर संबंध के

बारे में अनेक विलक्षण मान्यताएं मुख्यतः सायणाचार्य के भाष्य की भ्रांतिपूर्ण व्याख्या के

कारण ज्ञानवान व्यक्तियों तक के मन में भी बैठ गई हैं। यह विश्वास किया जाता है

कि असुर मानव नहीं थे। उन्हें भूत-पिशाच समझा गया है, जो आर्यों को रात होने पर

सताया करते थे। सुर अथवा देव प्रकृति की शक्तियों के काव्यात्मक प्रतीक कहे गए,

आर्यों के संबंध में यह धारणा है कि वे गोरे रंग के, नुकीली नाक वाले, गौर वर्ण के

मनुष्य थे और उसमें इसका बहुत अभिमान था। दस्युओं के बारे में कहा गया है कि शूद्र

का दूसरा नाम दस्यु है। यह भी कहा गया है कि शूद्र भी भारत के आदि निवासी थे।

इनका रंग काला और नाक चपटी होती थी। जब आर्यों ने भारत पर आक्रमण किया तो

उन्होंने इन्हें पराजित कर दिया और इन्हें अपना दास बना लिया और दासता के चिह्न

के रूप में इन्हें ‘दस्यु’ नाम दिया। कहा जाता है कि ‘दस्यु’ शब्द दास शब्द से निकला

है, जिसका अर्थ है, गुलाम।1

ये सारी धारणाएं निराधार हैं। असुर और सुर, दोनों आर्यों के समान मनुष्य थे।

असुर और सुर, दोनों के पिता कश्यप थे। कथा है कि दक्ष प्रजापति की साठ कन्याएं

थीं, जिनमें से तेरह कन्याओं का विवाह कश्यप के साथ हुआ था। कश्यप की तेरह

पत्नियों में से एक दिति और दूसरी थी, अदिति। जो दिति से उत्पन्न हुए, वे दैत्य

अथवा असुर कहलाए और जिनका जन्म अदिति से हुआ, वे सुर अथवा देव कहलाए।

इन दोनों व फ़े बीच बहुत दिनों तक पृथ्वी पर आधिपत्य के लिए भीषण युद्ध हुआ।

इसमें संदेह नहीं कि यह एक पाैराणिक कथा है। बेशक, यह पाैराणिक कथा है,

लेकिन यह भी एक इतिहास है और पौराणिक इतिहास अतिशयोक्ति में कहा गया

इतिहास ही होता है।

आर्य कोई प्रजाति नहीं थी। आर्य कुछ व्यक्तियों का एक समूह था। उनको आपस

में बांधे रखने का सूत्र एक विशिष्ट संस्कृति को बनाए रखने में उनका स्वार्थ था, जिसे

आर्य संस्कृति कहा जाता है। जो भी व्यक्ति आर्य संस्कृति को स्वीकार कर लेता, वह

आर्य कहलाता था। चूंकि यह कोई प्रजाति नहीं थी, अतः इसके लिए वर्ण और आकृति

का कोई मापदंड नहीं था, जिसे आर्य कहा जा सकता। आर्यों में काले रंग और चपटी

नाक वाला कोई वर्ग ऐसा नहीं था, जो अपने आपको उनसे भिन्न कहता हो।2

आर्यों और दस्युओं में विभाजन और परस्पर वैर वर्ण के प्रति पूर्वाग्रह के कारण

रहा यह धारणा वर्ग और अनास्, इन दो शब्दों के गलत अर्थ लगाए गए जाने के

कारण पैदा हुई, जिनका प्रयोग दस्युओं के प्रसंग में किया गया। ‘वर्ण’ शब्द का

अर्थ रंग और अनास् का अर्थ बिना नाक वाला लगाया गया। ये दोनों अर्थ गलत हैं।

वर्ण का अर्थ जाति और अनास् को यदि संधि-विच्छेद करें, अर्थात् अन$आस पढ़ें

तो इसका अथ र् होगा, मुख या आकृति रहित। यह कहना कि आर्यों में वर्ण के प्रति

पूर्वाग्रह था जिसके कारण इनकी पृथक सामाजिक स्थिति बनी, कोरी बकवास होगी।

अगर कोई ऐसे लोग थे जिनमें वर्ण के प्रति कोई पूर्वाग्रह नहीं था, तो वह आर्य थे और

यह इसलिए था कि इनका कोई प्रमुख वर्ण नहीं था, जिसके आधार पर वे अपने को

अलग-अलग रखते।

यह कहना गलत है कि दस्यु प्रजाति के कारण अनार्य थे। दस्यु भारत की आर्यों

  1. निरुक्त के अनुसार दास का अर्थ है नष्ट करना।
  2. इस संपूर्ण विषय पर पुरुषार्थ खंड, पृ. 13 पर श्री सातवलेकर का सिद्धांतपूर्ण विवेचन देखिए।

से पूर्व की कोई आदिम जाति भी नहीं थी। दस्यु आर्य संप्रदाय के सदस्य थे किंतु उन्हें

कुछ ऐसी धारणाओं और आस्थाओं का विरोध करने के कारण आर्य संज्ञा से रहित कर

दिया गया जो आर्य संस्कृति का आवश्यक अंग थी। इस धारणा का कि दस्यु प्रजाति

के कारण अनार्य हैं, कैसे जन्म हुआ, यह समझना कठिन है।

ऋग्वेद में इंद्र कहते हैं कि ‘मैंने कवि नामक व्यक्ति के हितार्थ अपने वज्र से संहार

किया है, मैंने सुरक्षा के साधनों का उपयोग कर कूप की सुरक्षा की है, मैंने संरक्षण के

साधनों से कूप को बचाया है, मैंने सुष्न के संहार के लिए वज्र का उपयोग किया, मैंने

दस्युओं को आर्य की संज्ञा से वंचित किया।’ (ऋग्वेद, 10.49)

इंद्र के इस कथन से अधिक सकारात्मक और निश्चित प्रमाण और कोई नहीं हो

सकता कि दस्यु आर्य ही थे। इसके अतिरिक्त एक और प्रमाण, अनेक अत्याचारों के

कारण इंद्र को दंडित किया जाना भी है। इंद्र को जिन अत्याचारों के कारण दंडित किया

गया, उसमें से एक यह भी है कि इंद्र ने वृत्र का वध किया था। वृत्र दस्युओं का नायक

था। यदि दस्यु आर्य न होते तो इंद्र पर ऐसा आरोप लगाना अकल्पनीय है।

यह सोचना भी गलत है कि आर्य आक्रमणकारियों ने शूद्रों पर विजय प्राप्त की।

पहली बात तो यह है कि इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिलता कि आर्य भारत में बाहर

से आए और उन्होंने यहां के निवासियों पर आक्रमण किया था। इस बात की पुष्टि के

लिए प्रचुर प्रमाण हैं कि आर्य भारत के मूल निवासी थे। दूसरी बात यह है कि इस बात

का कहीं कोई प्रमाण नहीं मिलता कि आर्यों और दस्युओं के बीच कभी कोई युद्ध हुआ

हो, और दस्युओं का शूद्रों से कोई लेना-देना नहीं था। तीसरी बात यह है कि इस बात

पर विश्वास करना कठिन है कि आर्य कोई शक्तिशाली लोग थे, जिनके पास पर्याप्त

बल था। जो कोई भारत में आर्यों का इतिहास देवों के साथ उनके संबंध के प्रसंग में

पढ़ता है, उसे उनके उस संबंध का स्मरण हो जाता है जो सामंती युग में सामंत और

उनके अधीनों के बीच होते थे। देव सामंत होते थे और आर्य उनके अधीन थे। आर्य

लोग जो आहुतियां देते थे, उनका स्वरूप कुछ ऐसा ही है, जैसे देवों को शुल्क दिया

जा रहा हो। देवों के प्रति आर्यों की अधीनता का कारण यह था कि उनके संरक्षण के

बिना वे असुरों से अपनी रक्षा नहीं कर सकते थे। इस प्रकार यह कल्पना करना कठिन

है कि ऐसे अशक्त लोगों ने शूद्रों पर विजय प्राप्त की थी। अंतिम बात यह है कि शूद्रों

के विषय में दो बातें स्पष्ट हैं। इस बात से कोई सहमत नहीं है कि उनका रंग काला

और नाक चपटी थी। न ही किसी ने इस बात को स्वीकार किया है कि वे आर्यों द्वारा

कभी पराजित किए गए या गुलाम बनाए गए थे। आर्यों और दस्युओं को एक ही मानना

गलत बात है। वे बराबर के लोग थे। किंतु सांस्कृतिक रूप में वे एक-दूसरे से बिल्कुल

भिन्न थे।1 दस्यु इस अर्थ में अनार्य थे कि वे अलग हो गए और उन्होंने आर्य-संस्कृति

का विरोध किया। दूसरी ओर, शूद्र आर्य ही थे, अर्थात् वे जीवन की आर्य-पद्धति में

विश्वास रखते थे। शूद्रों को आर्य स्वीकार किया गया था और कौटिल्य के अर्थशास्त्र

तक में उन्हें आर्य कहा गया है।

शूद्र आर्य समुदाय के अभिन्न, जन्म-जात और सम्मानित सदस्य थे। यह बात यजुर्वेद

में उल्लिखित एक स्तुति से पुष्ट होती है जो प्रार्थना के रूप में कही गई है। यह इस

प्रकार हैः ‘हे ईश्वर! हमारे पुरोहितों को वैभव दो। हमारे शासकों को संपन्न करो। वैश्यों

और शूद्रों को समृद्ध करो। मुझे समृद्ध करो।’

यह एक उल्लेखनीय प्रार्थना है, उल्लेखनीय इस कारण, क्योंकि इससे पता चलता

है कि शूद्र आर्य समुदाय का सदस्य होता था और वह उसका सम्मानित अंग था।

राजा के राज्याभिषेक के समय शूद्रों को भी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के समान

आमंत्रित किया जाता था। यह बात महाभारत में दिए गए पांडवों के ज्येष्ठ भाई युधिष्ठिर

के राज्याभिषेक के वर्णन से पुष्ट होती है। शूद्र ने राजतिलक के समय समारोह में भाग

लिया था। नीलकंठ नामक एक प्राचीन विद्वान के अनुसार, जो राज्याभिषेक समारोह

का वर्णन करते हैं, ‘चार प्रमुख मंत्री, ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और शूद्र ने नए राजा का

अभिषेक किया। इसके पश्चात् प्रत्येक वर्ण के प्रमुखों और छोटी जातियों के प्रमुखों ने

भी पवित्र जल से राजा का अभिषेक किया। इसके पश्चात् द्विजों ने जयघोष किया।’

वैदिक युग के पश्चात् और मनु के पूर्व जन-प्रतिनिधियों का एक वर्ग होता था, जिन्हें

रत्नी कहा जाता था। राजा के राज्यारोहण के समय वे विशेष भूमिका निभाते थे। उन्हें

रत्नी इसलिए कहा जाता था कि उनके पास रत्न होते थे, जो प्रभुता का प्रतीक होता

था। राजा को प्रभुता तभी प्राप्त होती थी, जब रत्नीगण उसे सत्ता के प्रतीक स्वरूप रत्न

भेंट करते थे। वह प्रभुता प्राप्त होने के उपरांत प्रत्येक रत्नी के घर जाता था और उसे

उपहार देता था। महत्वपूर्ण बात यह है कि शूद्र भी एक रत्नी था।

प्राचीन समय में शूद्र दो महत्वपूर्ण राजनीतिक संस्थाओं के सदस्य हुआ करते थे,

जिन्हें जनपद और पौर कहा जाता था, और वे इन संस्थाओं के सदस्य होने के कारण

ब्राह्मण तक से विशेष सम्मान के अधिकारी होते थे।

यह निर्विवाद सत्य है कि प्राचीन आर्य समाज में शूद्रों ने उच्च राजनीतिक गौरव

प्राप्त किया था। वे राज्य के मंत्री बन सकते थे। महाभारत में इसका प्रमाण मिलता है।

महाभारतकार अपनी स्मृति के आधार पर 37 मंत्रियों की एक सूची का उल्लेख करता

है, उसमें चार मंत्री ब्राह्मण, आठ मंत्री क्षत्रिय, इक्कीस मंत्री वैश्य और तीन मंत्री शूद्र

तथा एक मंत्री सूत था।

  1. शुक्ल यजुर्वेद, पृ. 200

शूद्रों ने अपनी प्रगति राज्य में मंत्री तक बन जाने तक ही सीमित नहीं रखी, वे राजा

भी बने। कोई शूद्र राजा बन सकता है या नहीं, इस बारे में मनु ने जो धारणा व्यक्त

की है, वह शूद्रों के विषय में ऋग्वेद में वर्णित कथा के एकदम विपरीत है। सुदास के

शासन की जब कभी चर्चा की जाती है, वह वशिष्ठ और विश्वामित्र के बीच इस बात

के लिए भयंकर प्रतिस्पर्धा के प्रसंग में की जाती है कि उसमें से कौन उसका राजपुरोहित बनेगा। यह विवाद इस बात को लेकर उठा कि किसे पुरोहित या राजा बनने का

अधिकार है। वशिष्ठ ने, जो ब्राह्मण थे, और जो पहले से ही सुदास के पुरोहित थे, यह

व्यवस्था की कि राजा का पुरोहित केवल ब्राह्मण हो सकता है, जबकि विश्वामित्र ने,

जो एक क्षत्रिय थे, यह कहा कि इस पद पर क्षत्रिय का अधिकार है। विश्वामित्र अपने

उद्देश्य में सफल हुए और वह सुदास के पुरोहित बन गए। वह विवाद निस्संदेह स्मरणीय

है क्योंकि इसका संबंध एक ऐसे प्रश्न से है जो बहुत ही महत्वपूर्ण है। हालांकि इसके

परिणामस्वरूप ब्राह्मण स्थाई रूप से राज-पुरोहित के पद से वंचित नहीं किए जा सके,

किंतु इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह घटना सामाजिक इतिहास की शायद एक महत्वपूर्ण

घटना है जो हमें प्राचीन ग्रंथों में मिलती है। दुर्भाग्य से इस बात की ओर किसी का

ध्यान नहीं गया, न ही किसी ने यह गंभीरतापूर्वक सोचा कि वह राजा कौन था? सुदास

पैजवन का पुत्र था और पैजवन दिवोदास का पुत्र था, जो काशी का राजा था। सुदास

का वर्ण क्या था? अगर लोगों को यह बताया जाए कि सुदास नामक राजा एक शूद्र

था तो बहुत कम लोगों को विश्वास होगा। किंतु यह एक यथार्थ है और इसका प्रमाण

महाभारत में उपलब्ध है1 जहां शांति पर्व में पैजवन का प्रसंग आया है। वहां यह कहा

गया है कि पैजवन एक शूद्र था। यहां सुदास की कथा से आर्यों के समाज में शूद्रों

की स्थिति के बारे में नई रोशनी मिलती है। इससे पता चलता है कि शूद्र भी राजा हो

सकता था और शासन कर सकता था। इससे यह भी पता चलता है कि ब्राह्मण और

क्षत्रिय एक शूद्र राजा के अधीन कार्य करने में किसी अपमान का अनुभव नहीं करते

थे, बल्कि उनमें राजा का अनुग्रह प्राप्त करने के लिए परस्पर प्रतिस्पर्धा थी और उसके

यहां वैदिक कर्म करने के लिए तैयार रहते थे।

यह नहीं कहा जा सकता कि बाद के युग में कोई शूद्र राजा नहीं हुआ। बल्कि इसके

विपरीत ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि मनु के पूर्व शूद्र राजाओं के दो साम्राज्य थे। नंदों ने, जो

शूद्र थे, ईसा पूर्व 413 से ईसा पूर्व 322 शताब्दी तक राज्य किया। इसके पश्चात् मौर्य

हुए, जिन्होंने ईसा पूर्व 322 से ईसा पूर्व 183 शताब्दी तक शासन किया; वे भी शूद्र थे।2

इस बात को सिद्ध करने के लिए कि शूद्रों ने कितना ऊंचा स्थान प्राप्त किया अशोक

  1. जायसवाल-हिंदू पॉलिटी, खण्ड-2, पृ. 148
  2. म्यूर, संस्कृत टैक्क्स्ट्स, खंड 1, पृ. 366

के दृष्टांत से बढ़कर क्या दृष्टांत हो सकता है जो भारत का सम्राट ही नहीं था, बल्कि

वह शूद्र भी था और उसका साम्राज्य वह साम्राज्य था जिसे शूद्रों ने बनाया था।

वेदों का अध्ययन करने के बारे में शूद्रों के अधिकारों के प्रश्न पर छांदोग्य उपनिषद

उल्लेखनीय है। इसमें जनश्रुति नामक एक व्यक्ति की कथा आती है, जिसे वेद-विद्या

का ज्ञान रैक्व नामक आचार्य ने दिया था। वह व्यक्ति एक शूद्र था। यदि यह एक सत्य

कथा है तो इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि एक समय ऐसा भी था, जब अध्ययन

के संबंध में शूद्रों पर कोई प्रतिबंध नहीं था।

केवल यही बात नहीं थी कि शूद्र वेदों का अध्ययन कर सकते थे। कुछ ऐसे

शूद्र भी थे, जिन्हें ऋषि-पद प्राप्त था और जिन्होंने वेद मंत्रें की रचना की। कवष

एलूष1 नामक ऋषि की कथा बहुत ही महत्वपूर्ण है। वह एक ऋषि था और ऋग्वेद

के दसवें मंडल में उसके रचे हुए अनेक मंत्र हैं।2 वैदिक कर्म में और यज्ञादि करने

के बारे में शूद्रों की आध्यात्मिक क्षमता के प्रश्न पर जो सामग्री मिलती है, वह

निम्नलिखित हैं। पूर्व-मीमांसा के प्रणेता जैमिनि3 ने बदरी नामक एक प्राचीन आचार्य

का उल्लेख किया है, जिनकी कृति अनुपलब्ध है। यह इस मत के व्याख्याता थे कि

शूद्र भी वैदिक यज्ञ करा सकते हैं। भारद्वाज श्राैत स ूत (5.28) में स्वीकार किया गया

है कि विद्वानों का एक ऐस वर्ग भी है जो वैदिक यज्ञ के लिए आवश्यक तीन पवित्र

अग्नियों को उत्पन कर सकता है। कात्यायन श्रौत सूत्र (1 और 5) का भाष्यकार

यह स्वीकार करता है कि कुछ वैदिक ऋचाएं ऐसी हैं, जिनसे यह निष्कर्ष निकलता

है कि शूद्र वैदिक कर्म करने के योग्य हैं। शतपथ ब्राह्मण (1.1.4.12) में आचार

विषयक एक नियम का उल्लेख है, जिसका आचारण यज्ञ कराने वाले ब्राह्मण को

करना होता था। यह उस विधि के संबंध में है जिसके अनुसार पुरोहित को हविष्कूट

(यज्ञ कराने वाले व्यक्ति)को संबोधित करना चाहिए। यह नियम इस प्रकार हैः एहि

(यहां आओ) यह ब्राह्मणों के लिए कहा गया है। आगहि (आगे बढ़ो) यह वैश्यों के

लिए है। आद्रव (जल्दी आओ), यह राजन्य (क्षत्रिय) के संबंध में है और आधाव

(भाग कर) आओ, यह शूद्र के लिए है।

शतपथ ब्राह्मण4 में ऐसा प्रमाण मिलता है कि शूद्र सोम यज्ञ करा सकता था और

देवताओं का पेय सोम ग्रहण कर सकता था। इसमें कहा गया है कि सोम यज्ञ में ‘पयोव्रत’

  1. ऐतरेय ब्राह्मण, खंड 2, पृ. 112
  2. मैक्समूलर-एनशिएंट संस्कृत लिट्रेचर (1860)
  3. काणे कृत हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र में उद्धृत
  4. वही

(केवल दुग्ध पान करने का व्रत) के स्थान पर शूद्र के लिए ‘मस्तु’ (दही का पानी)

निर्धारित था। एक अन्य स्थान पर शतपथ ब्राह्मण1 कहता हैः

‘चार वर्ण हैं: ब्राह्मण, राजन्य, वैश्य और शूद्र। इसमें से कोई भी ऐसा नहीं है जो

सोम का तिरस्कार करता हो। यदि उनमें से कोई ऐसा करता है तो उसे प्रायश्चित करना

होगा।’

इससे पता चलता है कि शूद्रों के लिए सोमपान करने की अनुमति ही नहीं थी,

वरन् यह शूद्र सहित सभी के लिए अनिवार्य था। परंतु अश्विनी कुमारों की कथा में

इस बात का निश्चित प्रमाण मिलता है कि शूद्र को दैवीय सोम के पान करने का

अधिकार था।

यह कथा2 इस प्रकार है कि एक बार अश्विनी कुमारों की दृष्टि सुकन्या पर पड़ी

जिसने स्नान किया ही था और जो निर्वस्त्र थी। वह तरुणी थी अैर उसका विवाह च्यवन

नामक ऋषि से हुआ था जो विवाह के समय इतने वृद्ध हो चुके थे कि उनकी मृत्यु

कभी भी हो सकती थी। अश्विनी कुमार सुकन्या के सौंदर्य को देख उस पर मुग्ध हो

गए और उन्होंने उससे कहा कि, ‘तुम हम में से किसी को भी अपना पति चुन लो,

तुम्हें अपनी युवावस्था व्यर्थ में गवाना शोभा नहीं देता।’ उसने यह कहकर इंकार कर

दिया कि ‘मैं एक पतिव्रता स्त्री हूं’। अश्विनी कुमारों ने उससे फिर कहा और उसे इस

बार एक लालच दिया ‘हम स्वर्ग से आए प्रख्यात चिकित्सक हैं। हम तुम्हारे पति को

युवा और सुंदर बना देंगे। इसलिए तुम हममें से किसी को भी अपना पति बना लो।’

वह अपने पति के पास गई और उसने इस प्रस्ताव के बारे में अपने पति को बताया।

च्यवन ने सुकन्या से कहा, ‘तुम ऐसा ही करो,’ और बात तय हो गई। और अश्विनी

कुमारों ने च्यवन को युवक बना दिया। तब ये प्रश्न उठा कि क्या अश्विनी कुमार सोम

के अधिकारी हैं, जो देवताओं का पेय है। इंद्र ने इस पर आपत्ति की और कहा कि

अश्विनी कुमार शूद्र हैं और इसलिए वे सोम के अधिकारी ही नहीं हैं। च्यवन ने, जो

अश्विनी कुमारों से यौवन प्राप्त कर चुके थे, इंद्र की इस आपत्ति का खंडन किया और

उसे अश्विनी कुमारों को सोम देने के लिए विवश किया।

उस समय यदि शूद्र को अपने से संबंधित यज्ञ-कर्म करने की अनुमति नहीं थी,

तो इन सब प्रावधानों का कोई अर्थ नहीं हो सकता था। ऐसे भी प्रमाण हैं कि शूद्र स्त्री

ने अश्वमेध3 नामक यज्ञ में भाग लिया था। जहां तक उपनयन संस्कार और यज्ञोपवीत

  1. म्यूर द्वारा उद्धृत संस्कृत टैक्स्ट्स, खंड 1, पृ. 367
  2. वी- फासवायल, इंडियन माइथोलोजी, पृ. 128.32
  3. जायसवाल- इंडियन पॉलिटी, भाग 2, पृ. 17

धारण करने का प्रश्न है, इस बात का कहीं कोई प्रमाण नहीं मिलता कि यह शूद्रों के

लिए वर्जित था। बल्कि संस्कार गणपति में इस बात का स्पष्ट प्रावधान है और कहा

गया है कि शूद्र उपनयन के अधिकारी हैं।1

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि यद्यपि शूद्र निम्न वर्ग में गिने जाते

थे, तथापि मनु से पहले वे समाज में स्वतंत्र नागरिक थे। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में दिए

गए निम्नलिखित प्रावधान पर विचार कीजिएः

“जो संबंधी जन (ऐसे) शूद्र का, जो जन्मजात दास नहीं है और जन्म से आर्य हैं,

विक्रय करते हैं या उन्हें गिरवी रखते हैं, उनको दो पण का आर्थिक दंड दिया जाए।”

“जो कोई किसी दास को उसका धन लेकर ठगता है अथवा उसे उन विशेषाधिकारों

से वंचित करता है जो वह आर्य (आर्यभव) होने के कारण प्रयोग कर सकता है, (उसे)

(उसका) आधा आर्थिक दंड दिया जाए, जो किसी को आर्य को दास बनाने पर दिया

जाता है।”

“यदि कोई अपेक्षित धन मिल जाने पर किसी दास को मुक्त नहीं करता है, तब उसे

बारह पण दंड दिया जाए, किसी दास को अकारण बंदी बनाकर रखने पर (संरोधश्चकारणात्)

इतना ही दंड दिया जाए।”

“किसी भी ऐसे व्यक्ति की संतति आर्य मानी जाएगी, जिसने अपने आपको दास रूप

में बेच दिया है। प्रत्येक दास अपने स्वामी के कृत्यों के बावजूद उसका भी अधिकारी

होगा जो उसे उत्तराधिकारी स्वरूप प्राप्त होगी।”

मनु ने शूद्रों को क्यों दबाया?

शूद्रों के संबंध में यह पहेली कोई सरल पहेली नहीं है। यह एक जटिल पहेली है।

आर्यों ने हमेशा अनार्यों को आर्य बनाने का प्रयत्न किया। अर्थात् उन्हें आर्य संस्कृति का

अनुयायी बनाने का प्रयत्न किया। उनमें अनार्यों को आर्य बनाए जाने की इतनी उत्कट

इच्छा थी कि उन्होंने अनार्यों को सामूहिक आधार पर आर्य बनाने के लिए एक धार्मिक

समारोह की कल्पना की। इस समारोह का नाम व्रात्य स्तोम था। व्रात्य स्तोम के संबंध

में महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री का कथन हैः

“जिस संस्कार द्वारा व्रात्यों का शुद्धिकरण किया जाता था, जिसका वर्णन पंच विंश

ब्राह्मण में किया गया है, वह कम से कम एक रूप में तो वैदिक कालीन अन्य संस्कारों

से भिन्न था, अर्थात् अन्य संस्कारों में यज्ञ मंडप में केवल एक व्यक्ति और उसकी

पत्नी यजमान होते थे, किंतु इस संस्कार में हजारों व्यक्ति यजमान होते थे। इनमें से एक

  1. मैक्समूलर द्वारा एनसिएंट संस्कृत लिटरेचर (1860) में पृ. 207 पर उल्लिखित है।

व्यक्ति सबसे अधिक विज्ञ, सबसे अधिक धनवान या सबसे अधिक शक्तिशाली होता

था, वह गृहपति के रूप में कृत्य करता था और शेष व्यक्ति उसका अनुकरण करते थे।

गृहपति को अन्य की अपेक्षा अधिक दक्षिणा देनी होती थी।”

“मैं समझता हूं, यह एक ऐसी विधि थी, जिसके माध्यम से एक ही संस्कार कर

व्रात्यों को ऋषियों के समाज में सम्मिलित कर लिया जाता था। और ऐसे संस्कारों का

आयोजन प्रायः किया जाता था। इस प्रकार झुंड के झुंड खानाबदोश आर्यों को बसाया

गया। शुद्ध किए गए व्रात्यों को गृहस्थ बन जाने पर अपने व्रात्य जीवन की संपत्ति

अपने साथ रखने की अनुमति नहीं दी जाती थी। उन्हें अपनी संपत्ति उन व्रात्यों के लिए

छोड़ देनी पड़ती थी, जो उस समय भी व्रात्य बने रहते थे, अथवा वह मगध देश के

तथाकथित ब्राह्मणों को दे दी जाती थी। इस क्षेत्र के बार में मैंने एक अन्य स्थान पर

कहा है कि यहां अधिकांश वे लोग रहते थे जिन्हें ऋषिगण नीच समझते थे।”

“किंतु जब व्रात्यों को स्थाई जीवन में स्वीकार कर लिया जाता था, तब उन्हें समान

अधिकार प्राप्त हो जाते थे। ऋषि उनके हाथ का बना भोजन करते थे। उन्हें ऋग्, यजुर,

साम, तीनों विद्याओं की शिक्षा दी जाती थी, उन्हें वेदों का अध्ययन करने और उनका

अध्ययन कराने, अपने तथा दूसरों के लिए यज्ञ करने की अनुमति दे दी जाती थी, अर्थात्

वे पूर्ण रूप से समान समझे जाते थे। वे समान ही नहीं माने जाते थे, बल्कि उन्होंने ऋषि

जैसी उच्चतम प्रवीणता भी अर्जित की। उन्हें सामवेद का और ऋग्वेद का रहस्य भी ज्ञापित

किया गया। इनमें से कौशितकी नाम एक शुद्धीकृत व्रात्य को ऋग्वेद के ब्राह्मणों को संकलित

करने की अनुमति दी गई थी। यह संकल्प आज भी उसके नाम से जाना जाता है।”

आर्य न केवल अपने ढंग से इच्छुक अनार्यों को अपनी जीवन पद्धति में परिवर्तित

कर रहे थे, बल्कि वे अनिच्छुक असुरों को भी परिवर्तित कर रहे थे, जो आर्यों, उनकी

यज्ञ-संस्कृति और चातुर्वर्ण्य सिद्धांत और यहां तक कि वे उनके वेदों तक के विरोधी

थे, जिनका एक पौराणिक कथा के अनुसार असुरों ने आर्यों से हरण कर लिया था।

इस संबंध में विष्णु द्वारा हिरण्यकश्यप नामक असुर का वध कर उसके पुत्र प्रह्लाद

की इस कारण रक्षा करना कि प्रह्लाद आर्य संस्कृति में दीक्षित होना चाहता था, जबकि

हिरण्यकश्यप इसके विरुद्ध था, एक उल्लेखनीय उदाहरण है। अनार्यों को आर्य संस्कृति

में परिवर्तित करने और उन्हें अधिकार प्रदान करने के और भी कई उदाहरण हैं। शूद्रों

के विरुद्ध विरोधी दृष्टिकोण क्यों अपनाया गया? शूद्र को आर्य संस्कृति में पूर्णतः क्यों

सम्मिलित किया गया और पूर्ण अधिकार दिया गया और क्योंकर बहिष्कृत और अधिकार

वंचित किया गया? इस पहेली का, निषादों के साथ जो व्यवहार किया गया, उससे कुछ

हल निकलता है। प्राचीन संस्कृत साहित्य में पांच जनजातियों का उल्लेख हुआ है। उनका

विभिन्न शीर्षकों में वर्णन है, जैसे पंच कृष्ट्यः, पंच क्षित्यः, मनुष्यः, पंच चार्ष्ण्यः, पंच

जनः, पंचजन्म जैसे पंचभूम, पंच जात।

इस बात पर मतभेद है कि इन शब्दों का क्या अर्थ है? ऋग्वेद के भाष्यकार

सायणाचार्य का कथन है कि ये चार वर्णों और निषादों के द्योतक हैं। विष्णु पुराण में

निषादों की उत्पत्ति के विषय में निम्न कथा आती है –

‘7. सुनीता नामक कन्या का विवाह अंग के साथ हुआ, जो मृत्यु की पहली पुत्री

थी और उससे वेन का जन्म हुआ।

  1. मृत्यु का यह पुत्र जो अपने नाना को मिले शाप से ग्रस्त था, जन्म से ही दुष्ट

था, जैसे वह उसकी प्रकृति हो।

  1. जब श्रेष्ठ ऋषियों द्वारा वेन राज पद पर प्रतिष्ठित किया गया तब उसने पृथ्वी

पर यह घोषणा करवाई कि कोई भी यज्ञ न करे, न दान दे और न नैवेद्य अर्पित करे।

मेरे अतिरिक्त कोई भी यज्ञ की आहुति लेने योग्य नहीं है? ‘मैं सर्वदा के लिए यज्ञ का

स्वामी हूं।’

  1. तब सभी ऋषि आदरपूर्वक राजा के पास गए और उन्होंने उससे विनम्रतापूर्वक

समझाते हुए कहा-

  1. हे राजन्! हम जो कहते हैं, उसे सुनिए।
  2. हम दीर्घ सत्र नामक यज्ञ कर हरि की पूजा करेंगे, जो देवताओं के अधिपति हैं

और जो सभी यज्ञों के स्वामी हैं, इस यज्ञ से आपके साम्राज्य को, आपको और आपकी

प्रजा को उच्चतम लाभ होगा। आप सुख से रहें। आपको इस यज्ञ में भाग लेना होगा।

  1. विष्णु जो यज्ञों के स्वामी हैं, इस पूजा से हमारे द्वारा संतुष्ट किए जाने पर

आपको आपकी इच्छानुसार सभी फल प्रदान करेंगे। जिन राजाओं के राज्य में हरि, जो

यज्ञों के स्वामी हैं, का पूजन कर आदर किया जाता है, उनको सभी वस्तुएं जो वे चाहते

हैं, प्रदान करते हैं, ‘वेन ने उत्तर दिया – मुझसे अधिक श्रेष्ठ कौन है? मेरे अतिरिक्त

कौन हैं, जिसकी आराधना की जाए? हरि नाम का यह व्यक्ति कौन है जिसे आप यज्ञ

का स्वामी कहते हैं? ब्रह्मा, जनार्दन, रुद्र, इंद्र, वायु, यम, रवि, अग्नि, वरुण, धात्रि,

पूषण, पृथ्वी, चन्द्रमा – सभी और अन्य देवता जो शाप देते और आशीर्वाद देते हैं, राजा

में विद्यमान हैं क्योंकि वह सभी देवताओं से मिलकर बना है। आप इसे जानते हुए मेरे

आदेश के अनुसार कार्य कीजिए। ब्राह्मणों, आप न तो कोई दान दें, न पूरा करें और

न बलि दें।

  1. जिस प्रकार पत्नियों का परम कर्तव्य अपने-अपने पतियों की आज्ञा का पालन

करना है, उसी प्रकार आपको मेरी आज्ञा का पालन करना चाहिए। ऋषियों ने उत्तर

दिया, ‘हे महाराज, हमें अनुमति दीजिए, धर्म की हत्या न होने दीजिए, यह सारा संसार

पूजा-अर्चना का परिष्कृत रूप है।’

  1. जब धर्म का नाश होता है, तब उसके साथ सारे संसार का नाश हो जाता है।

जब वेन ने इस प्रकार ऋषियों द्वारा प्रताड़ित और संबोधित किए जाने पर भी अपनी

अनुमति नहीं दी, तब सभी मुनि असंतुष्ट होकर क्रुद्ध हो चिल्लाने लगे, ‘मार डालो,

इस पापी को मार डालो।’

  1. यह नीच कर्म करने वाला व्यक्ति जो ईश्वर की, जो आदि और अनंत परमेश्वर

की निंदा करता है, पृथ्वी पर राज्य करने योग्य नहीं है। इस प्रकार कहकर मुनियों ने

इस राजा को अपने हाथों में कुश लेकर शाप दिया, जो ईश्वर की निंदा करने और अन्य

पाप कर्मों के लिए पहले से ही शाप-ग्रस्त था। इसके बाद मुनियों ने अपने चारों ओर

धूल उड़ती देखी और जो लोग उनके पास खड़े थे, उनसे वे, जो कुछ हुआ, उसके

बारे में बोले।

  1. उन्हें बताया गया कि इस राज्य में जहां कोई राजा नहीं है, लोग त्रस्त होने के

कारण डाकू बन गए हैं और दूसरों की संपत्ति छीनने लगे हैं।

  1. यह धूल उन डाकुओं के कारण उड़ रही हैं, जो आवेश में आकर भाग रहे

हैं और दूसरे व्यक्तियों की संपत्ति लूट रहे हैं। तब सभी मुनियों ने एक-दूसरे से परामर्श

कर राजा की जांघ को रगड़ा जो निःसंतान था, जिससे एक पुत्र का जन्म हुआ जो

लकड़ी के जले हुए कुंदे के समान था, जिसकी मुखाकृति चपटी थी और जो कद में

बहुत ही छोटा था।

  1. यह व्यक्ति व्यथित होकर ब्राह्मणों से बोला, ‘मेरे लिए क्या आज्ञा है।’ उन्होंने

उससे कहा, बैठ जाओ (निषीथ) और इससे वह निषाद बन गया।

  1. इससे निषादों का जन्म हुआ, जो विन्ध्यपर्वत पर रहते हैं और अपने क्रूर कर्मों

के लिए कुख्यात हैं।

  1. इस प्रकार राजा का पाप उसके शरीर को त्याग कर बाहर आया और इस प्रकार

निषादों की उत्पत्ति हुई, जो वेन की क्रूरता की संतान है।’

निषादों की उत्पत्ति के बारे में यह एक पौराणिक उल्लेख है, किंतु यह ऐतिहासिक

तथ्य भी है। इससे यह प्रमाणित होता है कि निषाद निम्न वर्गीय और आदिम जातियां

थीं, जो विन्ध्य पर्वत पर जंगलों में रहती थीं। ये क्रूर तथा दुष्ट लोग थे, अर्थात् जो आर्य

संस्कृति के विद्वान थे। उन्होंने अपनी उत्पत्ति के संबंध में एक पौराणिक आख्यान गढ़

लिया और अपने-आपको आर्य संप्रदाय से जोड़ दिया। यह सब कुछ इसलिए किया गया

कि निषादों को आर्यों के दल से, न कि आर्यों के समाज से जोड़ लेने के लिए प्रमाण

मिल सकें। अब कहीं भी निषादों को नीच, असंस्कृत और विदेशी जनजाति कहकर

कोई रोक नहीं लगाई जाती। प्रश्न यह है कि शूद्रों पर सारी रोक क्यों लगाई जाती है

जो सुसंस्कृत थे और आर्य थे?